बेबाक हस्तक्षेप - Kashi Patrika

बेबाक हस्तक्षेप

अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें उछाल पर हैं, तो दूसरी तरफ रुपये की कीमत में लगातार हो रही गिरावट घरेलू बाजार के लिए चिंता का सबब है। हालांकि, रुपये की घटती कीमत के पीछे मुख्य कारण अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की बढ़ती कीमत को माना जा रहा है। कारण चाहे जो हो, संकेत यह है कि आनेवाले दिनों में देश में महंगाई और बढ़ने वाली है।

कभी रुपये की लुढ़कती कीमत पर 'मनमोहन' सरकार को घेरने वाली भाजपा इन दिनों रुपये में गिरावट को लेकर चुप्पी साधे हुए हैं। जब मोदी सरकार मई 2014 में दिल्ली में सत्तारूढ़ हुई थी, तब डॉलर के मुकाबले रुपया 60 के स्तर के आसपास था। लेकिन इसके बाद से कमोबेश दबाव में ही है। पिछले कुछ महीनों से ये दबाव और बढ़ा है और हाल ये है कि लुढ़कते हुए 15 महीने के निचले स्तर पर आ गया है। पिछले एक महीने में डॉलर के मुकाबले इसमें 2 रुपये 29 पैसे की गिरावट आई है।

एक जमाना था, जब अपना रुपया डॉलर को जबरदस्त टक्कर दिया करता था। जब भारत 1947 में आजाद हुआ, तो डॉलर और रुपये का दम बराबर का था, मतलब एक डॉलर बराबर एक रुपया। तब देश पर कोई कर्ज भी नहीं था, फिर जब 1951 में पहली पंचवर्षीय योजना लागू हुई तो सरकार ने विदेशों से कर्ज लेना शुरू किया और फिर रुपये की साख भी लगातार कम होने लगी। 1975 तक आते-आते तो एक डॉलर की कीमत 8 रुपये हो गई और 1985 में डॉलर का भाव हो गया 12 रुपये। 1991 में नरसिम्हा राव के शासनकाल में भारत ने उदारीकरण की राह पकड़ी और रुपया भी धड़ाम गिरने लगा और अगले 10 साल में ही इसने 47-48 के भाव दिखा दिए।
फिलहाल सच यह है कि डॉलर के मुकाबले रुपया इसी तरह गिरता रहा, तो देश में महंगाई बढ़ सकती है। कच्चे तेल का इंपोर्ट महंगा होगा,  ढुलाई महंगी होगी, जिसका असर यह होगा कि सब्जियों और खाने-पीने की वस्तुएं महंगी होंगीं। इसके अलावा विदेश घूमना महंगा होगा और विदेशों में बच्चों की पढ़ाई भी महंगी होगी। हालांकि, आंकड़ों पर जाएं तो देश के पास पर्याप्त विदेशी मुद्रा भंडार (424 अरब डॉलर) मौजूद है, लेकिन इसके साथ अर्थव्यवस्था के अन्य कारकों को जोड़कर देखें, तो साफ है कि आर्थिक मोर्चे पर संतुलन बनाये रखने के गंभीर प्रयासों की दरकार है।
-संपादकीय

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