बनारस की "ठुमरी क्वीन" - Kashi Patrika

बनारस की "ठुमरी क्वीन"

(तस्वीर में बनारस की दो विभूतियां, गिरिजा देवी संग डॉ.सोम घोष)

जन्मदिन विशेष।।
शास्त्रीय और लोक संगीत के अद्भुत मेल-मिलाप की नगरी काशी ने देश को अनेक मूर्धन्य प्रतिभा भेट किए हैं, जिनमें से एक हैं गिरिजा देवी। ख्याल-टप ख्याल, ध्रुपद-धमार, ठुमरी-दादरा, चैती-होली और छंद-प्रबंध, सभी विधा पर समान अधिकार रखने वाली गिरिजा देवी अपने आत्मीय जनों में 'अप्पा जी' के संबोधन से विख्यात थीं। उनका होना, उप-शास्त्रीय संगीत का एक बड़ा परिसर घेरता था। वे पूरब-अंग गायिकी के चौमुखी गायन का आदर्श उदाहरण थीं, जिसकी वजह से वे "ठुमरी की रानी" नाम से सुविख्यात हुईं।

उनका गायन बनारस की रस-गन्ध-प्रवाह आदि के घरेलू रस से आपूरित था। वे अपने गायन में जैसे एक घर को बुहारती, सजाती, बसाती और गाती थीं। ऐसा घर जो हम में से किसी का भी हो सकता था। उसमें सहज रसिकता, लालित्य और आत्मीयता का रचाव था। अप्पा जी की विकलता में मिलन और विरह, दूरी और नजदीकी, संसार और घर सब मुखर होते थे, मिलते और दूर तक साथ चलते थे।

साहित्यिक रचनाओं को गायकी से संवारा
उन्हीं के चलते साहित्यिक रचनाओं का पहले-पहल उपयोग कजरी और झूला गायन में हो सका। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और चौधरी बद्रीनारायण 'प्रेमघन' के ढेरों पद अप्पा जी ने गाकर अमर बनाए हैं। उन्होंने स्वयं भी कई कजरी लिखीं, जिनमें 'घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया' जैसी उत्कृष्ट बंदिश भी शामिल हैं।

संगीत में जली उंगलियां
अप्पा जी काम करते हुए भी संगीत के लिए वक्त निकाल लेती थीं। उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था कि- "मैं भोजन बनाते हुए रसोई में अपनी संगीत की कॉपी साथ रखती थी और तानें याद करती थी। कभी-कभी रोटी सेकते वक्त मेरा हाथ जल जाता था, क्योंकि तवे पर रोटी होती ही नहीं थी। मैंने संगीत के जुनून में बहुत बार उंगलियां जलाई हैं।"

पांच वर्ष की आयु से ही संगीत में रुचि
अप्पा जी का जन्म 8 मई, 1929 को बनारस में हुआ था। उनके पिता रामदेव राय एक जमींदार थे, जिनका संगीत के प्रति लगाव था। गिरिजा देवी के संगीत के प्रति आकर्षण को देखते हुए उन्होंने पाँच वर्ष की आयु में ही उनके लिए संगीत की शिक्षा की व्यवस्था कर दी थी। उनके प्रारम्भिक संगीत गुरु पण्डित सरयू प्रसाद मिश्र थे। नौ वर्ष की आयु में पण्डित श्रीचन्द्र मिश्र से उन्होंने संगीत की विभिन्न शैलियों की शिक्षा प्राप्त की। इस अल्प आयु में ही एक हिन्दी फिल्म 'याद रहे' में अभिनय भी किया था।

सफर नहीं था आसान
अप्पा जी के लिए अपना संगीत दुनिया तक पहुँचना आसान काम नहीं था। उन्हें अपने युग की रूढ़ियों के विरुद्ध कठिन संघर्ष करना पड़ा। उन्हें अपनी मां और दादी की आलोचना झेलनी पड़ी थी, क्योंकि उन दिनों अच्छे परिवार से ताल्लुक रखने वाले लोगों के सामने परफॉर्म नहीं करते थे। अप्पा जी संगीत को लेकर कृत संकल्प थीं, दुस्वरियों की अनदेखी कर उन्होंने 1949 में आकाशवाणी इलाहाबाद में उन्होंने अपनी पहली लोक प्रस्तुति दर्ज कराई। उसके बाद 1951 में बिहार के आरा में आयोजित एक संगीत सम्मेलन में गायन प्रस्तुत किया, यहीं से अप्पा जी की अनवरत संगीत यात्रा शुरू हुई। उन्होंने स्वयं को केवल मंच-प्रदर्शन तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि संगीत के शैक्षणिक और शोध कार्यों में भी अपना योगदान किया। 80 के दशक में उन्हें कोलकाता स्थित 'आई.टी.सी. संगीत रिसर्च एकेडमी' ने आमंत्रित किया। यहां रह कर उन्होंने न केवल कई योग्य शिष्य तैयार किए, बल्कि शोध कार्य भी कराए। 90 के दशक में गिरिजा देवी 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' से भी जुड़ीं। यहां अनेक छात्र-छात्राओं को प्राचीन संगीत परम्परा की दीक्षा दी।

हर सम्मान की हकदार "अप्पा जी"
वह संगीत से जुड़े हर सम्मान से पुरस्कृत की गई थीं। 1972 में गिरिजा देवी को 'पद्मश्री' से सम्मानित किया गया, तो 1989 में उन्हें 'पद्मभूषण' और 2016 में 'पद्मविभूषण' से सम्मानित किया गया था। इसके अलावा संगीत नाटक अकादमी अवार्ड, अकादमी फेलोशिप, यश भारती सहित कई पुरस्कारों की शोभा उन्होंने बढ़ाई।
अप्पा जी का 24 अक्टूबर, 2017 को कोलकाता में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। उनका जाना हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में खालीपन भर गया।
- सोनी सिंह

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