राधे झूलन पधारो झुकि आए बदरा... - Kashi Patrika

राधे झूलन पधारो झुकि आए बदरा...

देश की सांस्कृतिक राजधानी “काशी” में इन दिनों हर ओर सावन की घटा छाई है, जिसमें डूबा संपूर्ण वातावरण शिवमय हो गया है... 
महादेव विश्वनाथ दरबार यूं तो साल भर ही अपने धार्मिक क्रियाकलापों, त्योहारों, अनुष्ठानों, मेलों और संगीत के लिए चर्चा का विषय बना रहता है, पर सावन की यहाँ बात ही कुछ निराली होती है। हर ओर आपको शहर में महादेव के रंग में रंगे श्रद्धालु और उनकी सेवा करते शहरवासी नजर आ जाएंगे।

धार्मिक नगरी काशी सावन में अपने पूरे जोश पर होती हैं। एक ओर दूर-दूर से आने वाले शिवभक्त महादेव के दर्शन को लम्बी-लम्बी कतारों में लगे दिखाई देते हैं, तो दूसरी ओर शासन-प्रशासन से इतर नगरवासी और विभिन्न सामाजिक संगठन इन श्रद्धालुओं की सेवा करते नजर आएंगे। हो भी क्यों न महादेव स्वयं यहाँ अपने बारह ज्योतिर्लिंगों, नंदी, माता पार्वती, गणेश, स्कन्द, मातृकाएँ, नवगौरी, चारधाम, सप्तपुरी के प्रतीकात्मक रूप में जो विराजमान हैं।

सावन भर केसरिया काशी
सावन के पहले दिन से कावरियों के यहाँ आने का जो सिलसिला प्रारम्भ होता है, वो पूरे वातावरण को महीने भर बाबा के जयघोष से भर देता है।  देश के विभिन्न प्रांतों से आने वाले ये कांवरिया जल लेकर बाबा को अर्पित करते हैं और अपने आगे की यात्रा को आगे बढ़ जाते हैं। काशी में कावरियों के पड़ाव के लिए विभिन्न सामाजिक संगठन विश्राम स्थल की व्यवस्था करते हैं और उनके खान-पान की भी व्यवस्था कुछ स्थानों पर होती हैं। शहर का प्रवेश और निकासी ऐसी है कि कांवरिया कही से भी आए और निकले काशी के विभिन्न वलयों में से किसी एक की परिक्रमा आवश्य करके जाते हैं। आध्यात्मिक मायनो में ये काशी के वैभव को हर साल दोगुना बनाने की ऊर्जा प्रदान करता हैं।

सावन का मेला
यूं तो महाशमशान काशी का जीवन स्वयं किसी मेले से कम नहीं है, पर महत्वपूर्ण अवसरों पर काशी जिस हर्षोउल्लास के साथ तीज-त्योहारों को मनाती है वो देखते ही बनता है। सावन के विशेष माह में शहर के दक्षिणी कोने पर स्थित माँ दुर्गा के मंदिर के समीप माह भर चलने वाले मेले का आयोजन किया जाता है। अन्यत्र लगने वाले मेलों से इस मेले का भाव अलग है, जहाँ एक ओर यह मेला सावन माह के हर्षोउल्लास को दर्शाता है, तो वही दूसरी और काशी के आनंदवन के भाव को भी जागृत करता हैं। पुराने समय में काशी का यह क्षेत्र घना जंगल हुआ करता था।

कजरी और ठुमरी 

सावन हो और; विरह और प्रेम की बात न हो ऐसा इस भारत की सांस्कृतिक राजधानी में नहीं हो सकता जो भारत की सम्पूर्ण सांस्कृतिक विरासत को अपने अंदर समाहित किए हुए हैं। राधे झूलन पधारो झुकि आए बदरा, साजे सकल शृंगार दियो नैना कजरा, पहिरो पचरंग सारी ऊपर श्याम चदरा...। राग पीलू में कजरी की यह बंदिश जब फिजाओं में तैरती है तो राधा और कृष्ण का आध्यात्मिक प्रेम सभी के मन में जीवंत हो उठता है। प्रेम और विरह का जो भाव बरसात की बूंदों के साथ मन में बादलों की तरह उमड़ता और घुमड़ता है उसका वर्णन संगीत के माध्यम से ही किया जा सकता है। कजरी और ठुमरी के बोल होठों पर सजते हैं तो सुनने वाला भी संगीत की बरसात में भीगने से बच नहीं पाता है।
सिद्धार्थ सिंह 

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