“मनुष्य की सबसे बड़ी कठिनाई क्या है?” - Kashi Patrika

“मनुष्य की सबसे बड़ी कठिनाई क्या है?”

यंत्रों के बीच जी रहा मनुष्य स्वयं भी यंत्र बनकर रह गया है। विज्ञान, गणित, तर्क सीखते-सीखते मनुष्य यह भी भूलता जा रहा है कि उसके भीतर कोई आत्मा भी है...

पुरानी सारी कठिनाइयां तो मौजूद हैं ही, जो कृष्ण, बुद्ध के समय में थीं। कुछ नई कठिनाइयां भी मौजूद हो गई हैं। हम सब तरफ से कृत्रिम में जी रहे हैं। और यंत्रों बढ़ते जा रहे हैं। और मनुष्य की सब से बड़ी कठिनाई सदा से यह रही कि मनुष्य मूर्च्छित है। यंत्रों के बीच और भी मूर्च्छित हो गया, और भी यांत्रिक हो गया है।
तुम मुझसे पूछते हो: आधुनिक मनुष्य की सब से बड़ी कठिनाई क्या है? यांत्रिकता !

यंत्रों के साथ रहोगे तो यांत्रिक हो ही जाना पड़ेगा। यदि बहुत जागरूक न रहे, तो सुबह सात बजे की गाड़ी पकड़नी है, तो उसी ढंग से भागना होगा। कोई गाड़ी तुम्हारे लिए रुक नहीं रहेगी। तुम अपनी निश्चितता की चला नहीं चल सकते। तुम पक्षियों के गीत सुनते हुए नहीं जा सकते। आपाधापी है, भाग—भाग है।

विद्यासागर ने लिखा है, एक सांझ वह घूमकर लौट रहे थे और उनके सामने ही एक मुसलमान सज्जन अपनी सुंदर छड़ी लिए हुए, टहलते हुए वे भी आ रहे थे। मुसलमान सज्जन का नौकर भागा हुआ आया और उसने कहा: मीर साहब, जल्दी चलिए, घर में आग लग गई है। लेकिन मीर साहब वैसे ही चलते रहे। नौकर ने कहा: आप समझे या नहीं समझे? आपने सुना या नहीं सुना? घर जल रहा है, धू—धू कर जल रहा है! तेजी से चलिए! यह समय टहलने का नहीं है। दौड़ कर चलिए।

लेकिन, मीर साहब ने कहा: घर तो जल ही रहा है, मेरे दौड़ने से कुछ आग बुझ न जाएगी। और यहां तो सभी कुछ जल रहा है। और सभी को जल जाना है। जीवन भर की अपनी मस्ती की चाल इतने सस्ते में नहीं छोड़ सकता।

विद्यासागर तो बहुत हैरान हुए। मीर साहब उसी चाल से चलते रहे! वही छड़ी की टेक। वही मस्त चाल। वही लखनवी ढंग और शैली। विद्यासागर के जीवन में इससे क्रांति घटित हो गई, क्योंकि विद्यासागर को दूसरे दिन वाइसराय की कौंसिल में, महापंडित होने का सम्मान मिलने वाला था। और मित्रों ने कहा कि इन्हीं अपने साधारण सीधे—सादे, फटे—पुराने वस्त्रों में जाओगे, अच्छा नहीं लगेगा। तो हम ढंग के कपड़े बनवाए देते हैं, जैसे दरबार में चाहिए।

तो वे राजी हो गए थे, तो चूड़ीदार पाजामा, और अचकन और सब ढंग की टोपी और जुते और छड़ी, सब तैयार करवा दिया था मित्रों ने। लेकिन इस मुसलमान, अजनबी आदमी की चाल, घर में लगी आग, और यह कहता है कि क्या जिंदगी भर की अपनी चाल को, अपनी मस्ती को एक दिन घर में आग लग गई तो बदल दूं? दूसरे दिन उन्होंने फिर वे बनाए गए कपड़े नहीं पहने। वाइसराय की दुनिया में पहुंच गए वैसे ही अपने सीधे—सादे कपड़े पहने। मित्र बहुत चकित हुए। उन्होंने कहा: कपड़े बनवाए, उनका क्या हुआ? उन्होंने कहा: वह एक मुसलमान ने गड़बड़ कर दिया। अगर वह मकान में आग लग जाने पर अपनी जिंदगी भर की चाल नहीं छोड़ता, तो मैं भी क्यों अपनी जीवन के ढंग और शैली छोडू, जरा सी बात के लिए कि दरबार जाना है? देना हो पदवी दे दें, न देना हो न दें। लेकिन जाऊंगा अब अपनी ही शैली से।

मगर आज सब तरफ यंत्र कसे हुए हैं। यहां शैली नहीं बच सकती, व्यक्तित्व नहीं बच सकता, निजता नहीं बच सकती। यदि तुम अत्यधिक होश से न जियो, तो यंत्र तुम पर हावी हो जाएगा, तुम पर छा जाएगा। तुम घड़ी के कांटे की तरह चलने लगोगे और मशीन के पहियों की तरह घूमने लगोगे। और धीरे—धीरे तुम्हें भूल ही जाएगा कि तुम्हारे भीतर कोई आत्मा भी है! एक तो प्रकृति से संबंध टूट जाना और दूसरा यंत्र से संबंध जुड़ जाना, दोनों बातें महंगी पड़ी जा रही हैं।

मुकुर के लोचन खुले हैं।
बंद है आधार के दृग;
जड़ हुआ आधार का अस्तित्व,
छाया चल रही है!
मात्र दर्पण है, न दर्शन;
पूजता पाषाण चेतन!
चेतना खो चुका जीवन;
आंजते दृगहीन अंजन,
तिमिर माया छल रही है।
मान धन मन के निधन को;
खोजता जीवन मरण को—
अन्न—कण, क्षण—ग्रस्त क्षण को!
दिया तज रवि ने गगन को,
आय दिन की ढल रही है!
मंत्र का दीपक बुझा कर,
तंत्र—बल को बाहु में भर,
प्रौढ़ कर मोहित धरा पर,
यंत्र की माया निरंतर फूलती है,
फल रही है!
और सब तो गया—मंत्र गया तंत्र गया—यंत्र सिंहासन पर आरूढ़ हो गया है।
यंत्र की माया निरंतर फूलती है,
फल रही है।

और मनुष्य भी धीरे—धीरे यांत्रिक होता जा रहा है। वैज्ञानिक तो मानते भी नहीं कि मनुष्य यंत्र से कुछ ज्यादा है। और विज्ञान की छाप लागों के हृदय पर बैठती जा रही है, क्योंकि विज्ञान का शिक्षण दिया जा रहा है। हृदय का तो कहीं कोई शिक्षण नहीं है। प्रेम गीत तो कहीं सिखाए नहीं जा रहे हैं। हृदय की वीणा तो कहीं कोई बजाई नहीं जा रही है। तर्क सिखाया जा रहा है, गणित सिखाया जा रहा है। यंत्र को कैसे कुशलता से काम में लाया जाए, यह सिखाया जा रहा है। और धीरे—धीरे इस सब से घिरा हुआ आधुनिक मनुष्य, प्रकृति से टूट गया, परमात्मा से टूट गया, अपने से टूट रहा है। सारे संबंध जीवन के विराट से, उखड़े जा रहे हैं।
■ ओशो

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