महिलाओं के लिए आजादी के 70 सालों बाद भी समाज कितना बदला है यह आए दिन हो रही रेप की घटनाओं में झलक जाता है, लेकिन इससे इतर घरेलू हिंसा, कामकाजी महिलाओं को कम वेतन दिया जाना... मुश्किलें कई हैं और मुस्लिम हो महिला तो दोयम दर्जे की यह चादर और बड़ी हो जाती है। ऐसे में, इस विषय में हमें सोचना होगा।
आज महिलाओं ने हर एक क्षेत्र में पुरषों को बराबरी की टक्कर दी हैं और पुरुष प्रधान समाज में खुद अपनी मेहनत और लगन से अपना मुकाम बनाया हैं। एक ओर तो जहाँ हम महिलाओं को पुरुषों से आगे पाते हैं। वहीं, दूसरी ओर बड़ी संख्या में उनका शोषण होते हुए भी देखते हैं। कभी दहेज के नाम पर महिलाओं को जलाया जाता हैं, कभी घरेलू हिंसा की शिकार महिला आत्महत्या करती हैं, तो कभी उनके खिलाफ सामूहिक बलात्कार के मामले सामने आते रहते हैं। इन सब के बीच या तो समाज उनकी आवाज दबाने का प्रयास करता हैं या उन्हें न्याय पाने के लिए कोर्ट के चक्कर काटने पड़ते हैं। समाज अपराध की शिकार महिला को एक तरह से बहिष्कृत और स्वयं उसे ही अपराधी के तौर पर देखता हैं। समाज की यह कुत्सित मानसिकता तब भी फूलती-फलती रहती है, जब समाज में पचास प्रतिशत जनसँख्या महिलाओं की हैं। इसका उत्तर न तो किसी राजनीतिक सोच के पास हैं और न ही समाजशास्त्रियों के पास।
देश की संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व न के बराबर है, जो पुरजोर तरीके से महिलाओं के पक्ष को संसद में रख सकती हैं। और इससे निश्चित तौर पर देश में महिलाओं की स्थिति में बेहतर सुधार हो सकता हैं। इस पर गहन चिंतन करते हुए ही योजनाकारों ने 73 वें और 74 वें संविधान संसोधन के जरिये शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया। आज इस आरक्षण के जरिये महिलाएं अपने हक़ की लड़ाई बेहतर ढंग से लड़ पा रही हैं। पर क्या ये प्रावधान उन्हें पुरुष प्रधान समाज में पहले दर्जे की नागरिकता प्रदान करने के लिए पर्याप्त हैं ? सही मायने में ये प्रावधान तब तक सफल नहीं हो सकते, जब तक देश की संसद में उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं होगा।
इस विषय को ध्यान में रखते हुए ही संसद ने संविधान के 108 वें संसोधन के जरिये देश के निचले सदन लोकसभा, और राज्यों की लेजिस्लेटिव असेंबली में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटों के आरक्षण का बिल लाया था। सबसे पहले 1996 में इस बिल पर विचार किया गया था; एक लम्बी लड़ाई के बाद 9 मार्च 2010 को राजयसभा ने यह बिल पारित भी कर दिया। पर लोकसभा में यह बिल अब तक पारित नहीं हो पाया हैं।
अपने प्रारंभिक दिनों से अब तक इस बिल ने न जाने कितनी सरकार आते-जाते देखीं हैं, पर सभी से प्रश्न पूछने पर इस बिल को अब तक एक ही जबाब मिला हैं 'हमसफर तुम खामोश रहो।'
■ सिद्धार्थ सिंह
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