धर्म-ज्ञान-अध्यात्म पर चर्चा हो रही थी। किसी ने बीच में टोका, “ग्रहण विज्ञान ह कि उ कहानी सच ह जे हमरे दादी सुनवात रहलिन...” वह व्यक्ति आगे भी जिज्ञासु था, किंतु एक ने उसे आंखों से ही जैसे टोक दिया और सकपकाकर वह चुप हो गया। टोकने वाले ने लगभग मध्य में बैठे पुरुष की ओर देखते हुए कहा, “हां, तो गुरुजी आप क्या बता रहे थे?” पर उधर से प्रतिउत्तर नहीं मिला। कुछ पल सन्नाटा पसरा रहा, पर इस बीच सबकी नजरें उसी व्यक्ति की ओर टिकी रहीं।
(तब तक मैंने आसपास का पूरा विवरण अपनी आंखों के कैमरे में खींच लिया। पांच लोग बैठे थे, मध्य में ऑफ वाइट कुर्ता पहने सज्जन थे, पहनावे से संपन्नता झलक रही थी। ठीक उनसे सटकर एक व्यक्ति बैठा था, जो की संपन्नता में तो उन्हें मात दे रहा था, किंतु भाव-भंगिमा में उनसे खासा प्रभावित लगता था। दो अन्य सामान्य से व्यक्ति उनसे थोड़ी दूरी पर थे। पीछे सीढ़ी पर एक व्यक्ति था, जो शायद इनके साथ नहीं था, लेकिन बातचीत में शामिल हो गया था। इनसे कुछ दूरी बना के बैठे एक-दो लोग मेरी ही तरह उनकी बातों में दिलचस्पी ले रहे थे।)
मुख्य बात पर लौटते हैं। शांत बैठे तथाकथित गुरुजी बोले, “इंसान को धर्म-कर्म समझना भी है, लेकिन रंचमात्र धैर्य नहीं है। पल भर भी चित शांत नहीं। परिणामतः क्रोध बढ़ रहा है...।” सामने वाले ने बड़े विनम्रता से निवेदन किया, “गुरुजी, लंपट है ये, आप आगे बताएं। बड़ा आनंद आ रहा था।”
गुरुजी कन्वेंस हो गए थे बोले,“ जीवन में शांति चाहिए, सुकून चाहिए तो क्रोध पर काबू पाना सीख लो। यदि कोई गाली दे, उसे स्वीकार न करो। गाली आपने जब स्वीकारी नहीं, तो उसी के पास रह गई। क्रोध पर जिसने काबू पाना सीख लिया, वो संत हो गया...।” गुरुजी अभी बोल ही रहे थे कि उनके फोन की घंटी बजने लगी। उन्होंने ज्ञान-चर्चा रोक कर फोन उठाया। आलीशान फोन, हाथ में हीरे जड़ी चमचमाती घड़ी, उंगलियों में रंग-बिरंगी पत्थर जड़ी सोने, प्लैटिनम की अंगूठियां थीं। जिसे देख मैं आवक थी। उधर, गुरुजी कुछ सेकंड फोन पर सामने वाले की बात सुनने के बाद ही तमतमा उठे। फोन पर शायद विज्ञापन संबंधी कॉल था। गुरुजी ने लगभग क्रोध में सामने वाली महिला को उत्तर दिया, “बढ़िया नेटवर्क का दावा करके आप सिम पकड़ा देती हैं और आप लोगों के विज्ञापन कॉल के अलावा नेटवर्क गायब ही रहता है। फोन लग जाए तो आवाज साफ सुनाई नहीं पड़ता...और ...।” भावावेश में गुरुजी ने जाने क्या-क्या कहा और फोन रख दिया।
कुछ सेकेंड किसी की समझ में नहीं आया क्या बोले, किंतु साथ चिपक कर बैठा व्यक्ति अब भी गुरुजी के चेहरे की ओर बड़े भक्तिभाव से निहार रहा था, जैसे ज्ञान की सारी घुट्टी आज ही अपने अंदर उड़ेल लेगा। मगर ‛लंपट’ महाशय अबकी बोले, “गुरु घंटाले हउआ का? अबहीँ त ढेर ज्ञान बघारत रहला, क्रोध पर काबू...।” अब अपने मित्र की ओर देखकर उबला, “धंधा के खोटी कर येही सुने बदे...एक-दो गाली...फिर बड़ा गुरुजी भाग्य बदलिहे... मरा...।” व्यक्ति उठा और बिना उत्तर सुने आगे बढ़ गया। आसपास के जो लोग थे वे भी छिटक लिए। गुरु और चेला भी उठे और बड़े प्रेम से बातचीत करते घाट की सीढ़ियों पर ऊपर की ओर बढ़ चले।
मैं बैठी कुछ पल को सोच में डूब गई कि ये गुरुपूर्णिमा के दिन कैसे क्षद्म गुरु से मुलाकात हो गई। आए दिन ऐसे तथाकथित गुरुओं के शिष्यों की संख्या और क्लास के हिसाब से इनके प्रवचन देश-विदेश में आयोजित होते रहते हैं। कुछ ऐसे लोगों को तो मैंने अपने सामने ही मकान से महलनुमा घर और अंगूठी-पत्थर थमाते-थमाते विदेश पहुंचते देखा है। खबरों में भी तथाकथित गुरुओं के धोखे के किस्से आम होते रहते हैं, फिर भी ये कैसी अंधश्रद्धा समाज में बनी हुई है।
काम-क्रोध-लोभ-मोह में लिप्त ऐसे गुरु से बच कर रहें, क्योंकि अंधश्रद्धा के कारण ही ऐसे लोगों का धंधा फलफूल रहा है।
कबीर दास जी ने बड़ी सुंदर बात कही है-
“गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि।
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि॥”
■ सोनी सिंह
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