बेबाक हस्तक्षेप - Kashi Patrika

बेबाक हस्तक्षेप

आधुनिकता और विकास का दंभ भर रहे देश में आजकल आतंकवाद का एक चेहरा भीड़ के रूप में सामने आ रहा है। दिन-ब-दिन इसका बढ़ता आतंक देश में हर धर्म-जाति-वर्ग को असुरक्षित कर रहा है। शनिवार को अलवर जिले के रामगढ़ गांव में अकबर ऐसी ही भीड़ का शिकार हो जान गंवा बैठा। चिंता का विषय यह है कि इस तरह की उन्मादी भीड़ देश के हर हिस्से में है। तिस पर सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी के बाद केंद्र सरकार राज्य सरकार के सिर पर इसका ठीकड़ा फोड़कर खुद को जिम्मेदारी से मुक्त कर लेती है। ऐसे मामलों में सरकार की नीयत ही सवालों के घेरे में है, क्योंकि 25 जुलाई 2017 को लोकसभा में गृह राज्य मंत्री हंसराज गंगाराम अहीर ने बताया कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) धर्म, जाति, जन्म स्थान आदि (आईपीसी की धारा 153 क और 153 ख) के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देने वाले अपराधों के आंकड़े रखता है। बहरहाल गोरक्षा, गाय के व्यापार और दुर्व्यापार से संबंधित हिंसा के आंकड़े सरकार के पास नहीं है।

सरकार की ओर से हो रही लापरवाही के पीछे का सच कुछ हद तक यह भी है कि भीड़ को राजनीति और सत्ता मिलकर पैदा करते हैं। उन्हें निर्देशित करते हैं। इसे समझने के लिए ताजा उदाहरण स्वामी अग्निवेश की भीड़ द्वारा की गई पिटाई है। यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना उसी रोज की है, जब मॉब लिचिंग को लेकर सुप्रीम कोर्ट केंद्र और राज्य सरकार को लताड़ रही थी। खास तो यह है कि यह भीड़ राजनीति से प्रेरित थी, जिसकी शंका स्वयं अग्निवेश ने जताई।

भीड़ द्वारा हो रही इन हिंसाओं में गोरक्षा के नाम पर लोगों की जान लेने वाली भीड़ खुद को नायक समझती है और उसे लगता है कि धर्म की रक्षा कर रही है। ऐसे में, हिंसक घटनाओं को लेकर उसे रंचमात्र भी पछतावा नहीँ होता, जो खतरनाक है। इन मामलों में राजनीतिक हित हत्यारों को संरक्षण भी देते हैं, जिससे हत्यारों का हौसला बढ़ता है।

इन घटनाओं का अध्ययन करते हैं, तो पता चलता है कि इन मामलों में राजनीतिक हित हत्यारों को संरक्षण देते हैं। फिर भीड़ उनके नियंत्रण से भी बाहर निकल जाती है। वह किसी की नहीं सुनती। इसे घाटी के संदर्भ में पत्थरबाजी करते युवाओं के रूप में समझा जा सकता है, जो स्वयं को हीरो समझते हैं और न्यायसंगत। एक और बात गौर करने की है, जो बच्चा चोरों को भीड़ द्वारा पीटने की घटना में परिलक्षित होता है कि लोगों को इन मामलों में क़ानून, व्यवस्था और न्यायिक व्यवस्था में विश्वास नहीं रहा! इसे लेकर सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह लोगों में शासन-प्रशासन के प्रति विश्वास जगाए। यह तभी संभव है, जब बच्चा चोरी के मामलों पर अंकुश लगेगा। भीड़तंत्र को भड़काने में विशेष भूमिका निभाने वाली सोशल मीडिया को लेकर भी कड़े रुख की जरूरत है।

कुल मिलाकर, भीड़तंत्र द्वारा बढ़ती हिंसा देश के लिए चिंताजनक है, क्योंकि देश का विकास स्वास्थ्य  मानसिकता से ही हो सकता है। सोचनीय यह भी है कि भीड़ का कोई जात-पात-धर्म नहीं होता, यह सबके लिए घातक है। दूसरा यह भी कि अगर देश ऐसे ही चलना है, तो किसी चलाने वाले की जरूरत ही क्यों है?
■ संपादकीय

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