लम्हा-लम्हा तजरबा होने लगा - Kashi Patrika

लम्हा-लम्हा तजरबा होने लगा


लम्हा लम्हा तजरबा होने लगा,
मैं भी अंदर से नया होने लगा।

शिद्दत-ए-गम ने हदें सब तोड़ दीं,
जब्त का मंजर हवा होने लगा।

फिर नए अरमान शाखों को मिले,
पत्ता पत्ता फिर हरा होने लगा।

गौर से टुक आँख ने देखा ही था,
मुझ से हर मंजर खफा होने लगा।

रात की सरहद यकीनन आ गई,
जिस्म से साया जुदा होने लगा।

मैं अभी तो आईने से दूर हूँ,
मेरा बातिन क्यूँ खफा होने लगा।

'दानिश' अब तीरों की जद में आ गया,
जिंदगी से सामना होने लगा।
■ सरफराज दानिश

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