हो चित्त जहाँ भय-शून्य, माथ हो उन्नत: रविंद्रनाथ टैगोर - Kashi Patrika

हो चित्त जहाँ भय-शून्य, माथ हो उन्नत: रविंद्रनाथ टैगोर

पुण्यतिथि विशेष: गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर एकमात्र ऐसे कवि हैं जिनकी दो रचनाएं दो देशों का राष्ट्रगान बनीं। पहला देश तो भारत है और दूसरा बांग्लादेश है, जिसने रविंद्रनाथ टैगोर के गीत को राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार किया। गुरुदेव की पुण्यतिथि पर पढ़िए उनकी कुछ कविताएं-

हो चित्त जहाँ भय-शून्य, माथ हो उन्नत
हो ज्ञान जहाँ पर मुक्त, खुला यह जग हो
घर की दीवारें बने न कोई कारा
हो जहाँ सत्य ही स्रोत सभी शब्दों का
हो लगन ठीक से ही सब कुछ करने की
हों नहीं रूढ़ियाँ रचती कोई मरुथल
पाये न सूखने इस विवेक की धारा
हो सदा विचारों ,कर्मों की गतो फलती
बातें हों सारी सोची और विचारी
हे पिता मुक्त वह स्वर्ग रचाओ हममें
बस उसी स्वर्ग में जागे देश हमारा.
(प्रयाग शुक्ल द्वारा बाँग्ला से अनूदित गीतांजलि में से)
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उड़ती है धूल, कहती : "थे आए,
चैतरात,लौट गए, बिना कुछ बताए ।"
आए फिर, लगा यही, बैठा एकाकी ।
वन-वन में तैर रही तेरी ही झाँकी ।।
नए-नए किसलय ये, लिए लय पुरानी,
इसमें तेरी सुगंध, पैठी, समानी ।।
उभरे तेरे आखर, पड़े तुम दिखाई ।
हाँ,हाँ, वह उभरी थी तेरी परछाईं ।।
डोला माधवी-कुंज,तड़पन के साथ ।
लगा यही छू लेगा, तुम्हें बढ़ा हाथ ।।
(मूल बांगला से अनुवाद: प्रयाग शुक्ल)
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दिन पर दिन चले गए,पथ के किनारे
गीतों पर गीत,अरे, रहता पसारे ।।
बीतती नहीं बेला, सुर मैं उठाता ।
जोड़-जोड़ सपनों से उनको मैं गाता ।।
दिन पर दिन जाते मैं बैठा एकाकी ।
जोह रहा बाट, अभी मिलना तो बाकी ।।
चाहो क्या,रुकूँ नहीं, रहूँ सदा गाता ।
करता जो प्रीत, अरे, व्यथा वही पाता ।।
(मूल बांगला से अनुवाद: प्रयाग शुक्ल)
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ईश्वर से क्या मांगे
‘विपत्तियों से रक्षा कर’ - यह मेरी प्रार्थना नहीं,
मैं विपत्तियों से भयभीत न होऊं!
अपने दु:ख से व्यथित चित को सांत्वना देने की भिक्षा
नहीं मांगता, मैं दु:ख पर विजय पाऊं!

यदि सहायता न जुटे तो भी मेरा बल न टूटे,
संसार से हानि ही मिले, केवल वंचना ही पाऊं,
तो भी मेरा मन उसे क्षति न माने!

‘मेरा त्राण कर’ यह मेरी प्रार्थना नहीं,
मेरी तैरने की शक्ति बनी रहे,
मेरा भार हल्का करके मुझे सान्तवना न दे,
यह भार वहन करके चलता रहूं!

सुख भरे क्षण में नतमस्त· मैं तेरा मुख पहचान पाऊं,
किन्तु दु:ख भरी रातों में जब सारी दुनिया मेरी वंचना ·रे,
तब भी मैं तुमसे विमुख न होऊं!
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