साहित्यिक झरोखा: श्रृंगार-वीर रस के बेजोड़ तालमेल 'चंदबरदाई' - Kashi Patrika

साहित्यिक झरोखा: श्रृंगार-वीर रस के बेजोड़ तालमेल 'चंदबरदाई'


चार बाँस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमान! ता ऊपर सुल्तान है, मत चूके चौहान!!

देश की आंचलिक स्थितियों का वर्णन जिस प्रकार भारतीय साहित्यकारों ने किया है, वैसा विरले ही विश्व के किसी और देश में दिखाई पड़ता हैं। स्थानीय छोटी-छोटी घटनाओं का सजीव वर्णन साहित्कारों द्वारा गद्य और पद्य के माध्यम से किया गया है। आदिकाल में अक्सर इनमें अलौकिक घटनाओं का भी पुट किया गया है, जो लौकिक जगत को विस्मृत कर दिव्यस्वप्न देखने को भी प्रोत्साहित करते हैं। इन्हीं साहित्कारों के बीच श्रृंगार और वीर रस के कवि चंदबरदाई का नाम बड़े अदब से लिया जाता हैं।

चंदबरदाई का जन्म 1148 ई० लाहौर वर्तमान में पाकिस्तान में हुआ, बाद में वह अजमेर-दिल्ली के सुविख्यात नरेश पृथ्वीराज के सम्माननीय सखा, राजकवि और सहयोगी हो गए। वह राजधानी और युद्ध क्षेत्र सब जगह पृथ्वीराज के साथ रहा करते थे। चंदवरदाई का प्रसिद्ध ग्रंथ "पृथ्वीराजरासो" है जिसमें उन्होंने अपने सखा और राजा पृथ्वीराज के जीवन चरित्र का वर्णन किया है। इसकी भाषा को भाषा-शास्त्रियों ने पिंगल कहा है, जो राजस्थान में ब्रजभाषा का पर्याय है। चंदबरदाई को ब्रजभाषा हिन्दी का प्रथम महाकवि माना जाता है। 'रासो' की रचना महाराज पृथ्वीराज के युद्ध-वर्णन के लिए हुई है। इसमें उनके वीरतापूर्ण युद्धों और प्रेम-प्रसंगों का कथन है। अत: इसमें वीर और श्रृंगार दो ही रस है।

चंदबरदाई ने पृथ्वीराज और संयोगिता के प्रेम का सुन्दर वर्णन किया है। इन्होंने जयचंद से इनके विरोध का भी यथोचित वर्णन किया है। साथ ही तत्कालीन ऐतिहासिकता में पृथ्वीराज और मुहम्मद गोरी के बीच संघर्ष का भी विस्तार से उल्लेख किया है।

पद्मसेन कूँवर सुघर ताघर नारि सुजान।
      ता उर इक पुत्री प्रकट, मनहुँ कला ससभान॥
      मनहुँ कला ससभान कला सोलह सो बन्निय।
      बाल वैस, ससि ता समीप अम्रित रस पिन्निय॥
      बिगसि कमल-स्रिग, भ्रमर, बेनु, खंजन, म्रिग लुट्टिय।
      हीर, कीर, अरु बिंब मोति, नष सिष अहि घुट्टिय॥
छप्पति गयंद हरि हंस गति, बिह बनाय संचै सँचिय।
पदमिनिय रूप पद्मावतिय, मनहुँ काम-कामिनि रचिय॥
      मनहुँ काम-कामिनि रचिय, रचिय रूप की रास।
      पसु पंछी मृग मोहिनी, सुर नर, मुनियर पास॥
      सामुद्रिक लच्छिन सकल, चौंसठि कला सुजान।

      जानि चतुर्दस अंग खट, रति बसंत परमान॥
      सषियन संग खेलत फिरत, महलनि बग्ग निवास।
      कीर इक्क दिष्षिय नयन, तब मन भयो हुलास॥
      मन अति भयौ हुलास, बिगसि जनु कोक किरन-रबि।
      अरुन अधर तिय सुघर, बिंबफल जानि कीर छबि॥
      यह चाहत चष चकित, उह जु तक्किय झरंप्पि झर।
      चंचु चहुट्टिय लोभ, लियो तब गहित अप्प कर॥
हरषत अनंद मन मँह हुलस, लै जु महल भीतर गइय।
पंजर अनूप नग मनि जटित, सो तिहि मँह रष्षत भइय॥
      तिहि महल रष्षत भइय, गइय खेल सब भुल्ल।
      चित्त चहुँट्टयो कीर सों, राम पढ़ावत फुल्ल॥
      कीर कुंवरि तन निरषि दिषि, नष सिष लौं यह रूप।
      करता करी बनाय कै, यह पद्मिनी सरूप॥
      कुट्टिल केस सुदेस पोहप रचयित पिक्क सद।
      कमल-गंध, वय-संध, हंसगति चलत मंद मंद॥
      सेत वस्त्र सोहे सरीर, नष स्वाति बूँद जस।
      भमर-भमहिं भुल्लहिं सुभाव मकरंद वास रस॥
नैनन निरषि सुष पाय सुक, यह सुदिन्न मूरति रचिय।
उमा प्रसाद हर हेरियत, मिलहि राज प्रथिराज जिय॥
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