गजल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नजारों में,
मुसल्सल* फन का दम घुटता है इन अदबी इदारों* में,
न इन में वो कशिश होगी, न बू होगी, न रआनाई
खिलेंगे फूल बेशक लॉन की लम्बी कतारों में,
अदीबो ! ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ,
मुलम्मे के सिवा क्या है फलक के चाँद-तारों में,
रहे मुफलिस गुजरते बे-यकीनी के तजरबे से,
बदल देंगे ये इन महलों की रंगीनी मजारों में,
कहीं पर भुखमरी की धूप तीखी हो गई शायद,
जो है संगीन के साये की चर्चा इश्तहारों में।
■ अदम गोंडवी
(* मुसल्सल- कैद, * अदबी इदारों- सभ्य समाजो, * मुलम्मा- सोने की परत, * मुफ़लिस- गरीब, * तजरबे- अनुभव)
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