देश भर में विधायकों की सालाना आमदनी को लेकर आई ताजा रिपोर्ट पर नजर डालें, तो यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि आखिर जनप्रतिनिधि आम जन की मुसीबतों को समझने में क्यों समर्थ नहीं होते? चुनाव सुधारों पर काम करने वाले एक निजी एनजीओ असोसिएशन फॉर डेमोक्रैटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की यह रिपोर्ट भारत के कुल 4086 विधायकों में से 3145 द्वारा दिए गए स्वैच्छिक आय विवरण पर आधारित है। रिपोर्ट बताती है कि देश की विधायक बिरादरी की औसत सालाना आमदनी 24.59 लाख रुपये है। मजेदार बात यह है कि जिन 63 फीसदी विधायकों ने अपनी शैक्षिक योग्यता स्नातक या इससे ज्यादा बताई है, उनकी औसत आय 20.87 लाख रुपये है, जबकि 5वीं से 12वीं तक की शैक्षिक योग्यता रखने वाले 33 फीसदी विधायकों की औसत आय 31.03 लाख रुपये है। गौर करने लायक यह भी है कि ज्यादातर विधायकों ने अपनी आमदनी का स्रोत बिजनेस या खेती या दोनों को बताया है। इसमें खेती से होने वाली आमदनी टैक्स के दायरे में नहीं आती, न ही इसका विस्तृत ब्योरा देने की जरूरत होती है।
बहरहाल, इतना कि सुविधा संपन्न जनप्रतिनिधि को यह समझाना मुश्किल है कि पेट्रोल-डीजल की कुछ पैसों की बढ़त भी लोगोँ का बजट बिगाड़ने के लिए काफी है। सवाल यह भी उठता है कि 5वीं से 12वीं पास व्यक्ति यदि सिर्फ व्यवसाय-खेती से लाखों की आमदनी कर सकता है, तो आम लोगों के रोजगार की समस्या भी उसकी समझ से परे होगी। बात यह भी है कि यह आंकड़ा तो विधायकों की स्वेच्छा से उपलब्ध कराई आमदनी का है, जिनका संबंध विधायकों की संपत्ति के उसी हिस्से से है, जो पहले से सरकार की नजर में है और जिसे छुपाने की कोई जरूरत वे नहीं महसूस करते।
तो सवाल यह उठता है कि आम जन की छोटी-बड़ी समस्याओं से काफी दूर रहने वाले जनप्रतिनिधि उनकी समस्याओं को समझने में कैसे और क्योंकर सक्षम होंगे, जब उन्हें रोजगार, महंगाई से दो-चार होना ही नहीं पड़ता?
बहरहाल, इतना कि सुविधा संपन्न जनप्रतिनिधि को यह समझाना मुश्किल है कि पेट्रोल-डीजल की कुछ पैसों की बढ़त भी लोगोँ का बजट बिगाड़ने के लिए काफी है। सवाल यह भी उठता है कि 5वीं से 12वीं पास व्यक्ति यदि सिर्फ व्यवसाय-खेती से लाखों की आमदनी कर सकता है, तो आम लोगों के रोजगार की समस्या भी उसकी समझ से परे होगी। बात यह भी है कि यह आंकड़ा तो विधायकों की स्वेच्छा से उपलब्ध कराई आमदनी का है, जिनका संबंध विधायकों की संपत्ति के उसी हिस्से से है, जो पहले से सरकार की नजर में है और जिसे छुपाने की कोई जरूरत वे नहीं महसूस करते।
तो सवाल यह उठता है कि आम जन की छोटी-बड़ी समस्याओं से काफी दूर रहने वाले जनप्रतिनिधि उनकी समस्याओं को समझने में कैसे और क्योंकर सक्षम होंगे, जब उन्हें रोजगार, महंगाई से दो-चार होना ही नहीं पड़ता?
■ संपादकीय
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