साहित्यिक झरोखा:‛तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए’ - Kashi Patrika

साहित्यिक झरोखा:‛तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए’


मंगल भवन अमंगल हारी
द्रबहु सुदसरथ अचर बिहारी
राम सिया राम सिया राम जय जय राम..... 
साधक विभिन्न रूपों में भक्ति कर अपने भगवान को पाने का प्रयास करता है। ये साधना तब अत्यंत कठिन हो जाती है, जब इसका विस्तार जीवनपर्यन्त हो जाए। व्यक्ति जीवन भर मोह माया के बंधनों को काटकर अपना जीवन अपने ईश को समर्पित कर देता हैं। साधना का ऐसा ही एक उदहारण हैं भक्त शिरोमणि तुलसीदास जिन्होंने जीवन पर्यन्त भगवान राम की भक्ति अपनी साहित्यिक रचनाओं के माध्यम से किया। गोस्वामी तुलसीदास हिन्दी साहित्य के आकाश के परम नक्षत्र, भक्तिकाल की सगुण धारा की रामभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि है। तुलसीदास एक साथ कवि, भक्त तथा समाज सुधारक तीनों रूपों में मान्य है। श्रीराम को समर्पित ग्रन्थ श्रीरामचरितमानस वाल्मीकि रामायण का प्रकारान्तर से ऐसा अवधी भाषान्तर है, जिसमें अन्य भी कई कृतियों से महत्वपूर्ण सामग्री समाहित की गयी थी। श्रीरामचरितमानस को समस्त उत्तर भारत में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है। महाकाव्य श्रीरामचरितमानस को विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काव्यों में 46वाँ स्थान दिया गया। इसके बाद विनय पत्रिका तुलसीदासकृत एक अन्य महत्वपूर्ण काव्य है।

तुलसीदासजी का जन्म संवत 1589 को उत्तर प्रदेश (वर्तमान बाँदा ज़िला) के राजापुर नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम आत्माराम दुबे तथा माता का नाम हुलसी था। इनका विवाह दीनबंधु पाठक की पुत्री रत्नावली से हुआ था। अपनी पत्नी रत्नावली से अत्याधिक प्रेम के कारण तुलसी को रत्नावली की फटकार "लाज न आई आपको दौरे आएहु नाथ" सुननी पड़ी जिससे इनका जीवन ही परिवर्तित हो गया। पत्नी के उपदेश से तुलसी के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया।

अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति !
नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत ?


इनके गुरु बाबा नरहरिदास थे, जिन्होंने इन्हें दीक्षा दी। इनका अधिकाँश जीवन चित्रकूट, काशी तथा अयोध्या में बीता। तुलसीदास का बचपन बड़े कष्टों में बीता। माता-पिता दोनों चल बसे और इन्हें भीख मांगकर अपना पेट पालना पड़ा था। इसी बीच इनका परिचय राम-भक्त साधुओं से हुआ और इन्हें ज्ञानार्जन का अनुपम अवसर मिल गया। तुलसी भ्रमण करते रहे और इस प्रकार समाज की तत्कालीन स्थिति से इनका सीधा संपर्क हुआ। इसी दीर्घकालीन अनुभव और अध्ययन का परिणाम तुलसी की अमूल्य कृतियां हैं, जो उस समय के भारतीय समाज के लिए तो उन्नायक सिद्ध हुई। तुलसीदास द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या 39 बताई जाती है। इनमें रामचरित मानस, कवितावली, विनयपत्रिका, दोहावली, गीतावली, जानकीमंगल, हनुमान चालीसा, बरवै रामायण आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

श्रीराम से भेंट
तुलसीदास की भगवान राम से भेट की कथा अत्यंत रोचक हैं। साधक ने जिस क्षण साध्य को पाया उसी घडी अपनी सुध बुध को बैठा। हुआ यूँ कि कुछ काल राजापुर रहने के बाद तुलसीदास पुन: काशी चले गये और वहाँ की जनता को राम-कथा सुनाने लगे। कथा के दौरान उन्हें एक दिन मनुष्य के वेष में एक प्रेत मिला, जिसने उन्हें हनुमान ‌जी का पता बतलाया। हनुमान ‌जी से मिलकर तुलसीदास ने उनसे श्रीरघुनाथजी का दर्शन कराने की प्रार्थना की। हनुमान्‌जी ने कहा- "तुम्हें चित्रकूट में रघुनाथजी दर्शन होंगें।" इस पर तुलसीदास जी चित्रकूट की ओर चल पड़े।
संवत्‌ १६०७ की मौनी अमावस्या को बुधवार के दिन उनके सामने भगवान श्रीराम प्रकट हुए। उन्होंने बालक रूप में आकर तुलसीदास से कहा-"बाबा! हमें चन्दन चाहिये क्या आप हमें चन्दन दे सकते हैं?" हनुमान ‌जी ने सोचा, कहीं वे इस धोखा न खा जायें, इसलिये उन्होंने तोते का रूप धारण करके यह दोहा कहा:

चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर।
तुलसिदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥

तुलसीदास श्रीराम जी की उस अद्भुत छवि को निहार कर अपने शरीर की सुध-बुध ही भूल गये। अन्ततोगत्वा भगवान ने स्वयं अपने हाथ से चन्दन लेकर अपने तथा तुलसीदास जी के मस्तक पर लगाया और अन्तर्ध्यान हो गये।
तुलसीदास जी ने काशी के विख्यात् असीघाट पर अपना डेरा जमाया तो एक रात कलियुग मूर्त रूप धारण कर उनके पास आया और उन्हें पीड़ा पहुँचाने लगा। तुलसीदास जी ने उसी समय हनुमान जी का ध्यान किया। हनुमान जी ने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें प्रार्थना के पद रचने को कहा, इसके पश्चात् उन्होंने अपनी अन्तिम कृति विनय-पत्रिका लिखी और उसे भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया। श्रीराम जी ने उस पर स्वयं अपने हस्ताक्षर कर दिये और तुलसीदास जी को निर्भय कर दिया। संवत्‌ १६८० में श्रावण कृष्ण तृतीया शनिवार को तुलसीदास जी ने "राम-राम" कहते हुए अपना शरीर परित्याग किया।

माधव! मो समान जग माहीं।
सब बिधि हीन मलीन दीन अति बिषय कोउ नाहीं॥
तुम सम हेतु रहित, कृपालु, आरतहित ईसहि त्यागी।
मैं दुखसोक बिकल, कृपालु केहि कारन दया न लागी॥
नाहिन कछु अवगुन तुम्हार, अपराध मोर मैं माना।
ग्यान भवन तनु दियहु नाथ सोउ पा न मैं प्रभु जाना॥
बेनु करील, श्रीखण्ड बसंतहि दूषन मृषा लगावै।
साररहित हतभाग्य सुरभि पल्लव सो कहँ कहु पावै॥
सब प्रकार मैं कठिन मृदुल हरि दृढ़ बिचार जिय मोरे।
तुलसीदास प्रभु मोह सृंखला छुटिहि तुम्हारे छोरे॥


लाभ कहा मानुष-तनु पाये।
काय-बचन-मन सपनेहु कबहुँक घटत न काज पराये॥
जो सुख सुरपुर नरक गेह बन आवत बिनहि बुलाये।
तेहि सुख कहँ बहु जतन करत मन समुझत नहिं समुझाये॥
पर-दारा परद्रोह, मोह-बस किये मूढ़ मन भाये।
गरभबास दुखरासि जातना तीब्र बिपति बिसराये॥
भय,निद्रा, मैथुन, अहार सबके समान जग जाये।
सुर दुरलभ तनु धरि न भजे हरि मद अभिमान गँवाये॥
गई न निज-पर बुद्धि सुद्ध ह्वै रहे राम-लय लाये।
तुलसीदास यह अवसर बीते का पुनिके पछिताये॥


अब लौं नसानी, अब न नसैहों।
रामकृपा भव-निसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं॥
पायो नाम चारु चिंतामनि उर करतें न खसैहौं।
स्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी चित कंचनहिं कसैहौं॥
परबस जानि हँस्यो इन इंद्रिन निज बस ह्वै न हँसैहौं।
मन मधुपहिं प्रन करि, तुलसी रघुपति पदकमल बसैहौं॥

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