मनुष्य को छोड़ कर तुम्हें कहीं भी पाप-चिंता दिखाई नहीं पड़ेगी। चांद-तारों में, वृक्षों में, पक्षियों में हर तरफ विराट आनंद के महोत्सव में तुम अलग-अलग खड़े, दुर-टूर अपने अहंकार में अकड़े और जकड़े हो...
संत पलटू उत्सव के पक्षपाती हैं। उनके अनुसार प्रभु से मिलने का निकटतम मार्ग है उत्सव। निकटतम मार्ग है : नृत्य। वे कहते हैं बुलाओ प्रभु को–आनंद के आंसुओं से बुलाओ! पैरों में घुंघरू बांधो। नृत्य, गीत-गान से बुलाओ!हृदय की वीणा बजाओ! गीत को फूटने दो! उत्सव की बांसुरी बजाओ, रास रचाओ! देखते नहीं, परमात्मा चारो तरफ कितने उत्सव में है! चांद-तारों में, वृक्षों में, पक्षियों में! आदमी को छोड़ कर तुम्हें कहीं उदासी दिखाई पड़ती है?आदमी को छोड़ कर तुम्हें कहीं भी पाप दिखाई पड़ता है? आदमी को छोड़ कर कहीं तुम्हें चिंता दिखाई पड़ती है? सब तरफ उत्सव चल रहा है–अहर्निश!
सब तरफ नृत्य है, गान है।
इस विराट आनंद के महोत्सव में तुम अलग-अलग खड़े, दुर-टूर अपने अहंकार में अकड़े और जकड़े हो। उतारो इस अहंकार को, सम्मिलित हो जाओ इस नाच में। नाचो चांद-तारों के साथ! उसी नृत्य में तुम पाओगे कि परमात्मा की आख तुम पर पड़ने लगी। जब तुम उसे पुकारों, तो उदास, दुखी और चिंतित और
परेशान मत पुकारना। नहीं तो, तुमने हजार तो बाधाएं खड़ी कर दी; वह सुन कैसे पाएगा? उसे आती है भाषा—उत्सव की; उदासी की नहीं। पलटू उत्सव के पक्षपाती हैं। जिन्होंने जाना है, वे सभी उत्सव के पक्षपाती हैं। परमात्मा परम भोग है। प्रभु आता है–निश्चित आता है। जो भी निर-अंहकार दशा में, आनंद के उद्घोष से बुलाते हैं, उनके पास निश्चित आता है। आने को तड़पता है। तुम बुलाते नहीं। उसे पुकारना हो तो पुकारना तो जरूरी है, लेकिन ठीक ढंग से पुकारना जरूरी है। और वह ठीक ढंग है : नाचो, गाओ! उसे आनंद से बुलाओ। दावेदार मन बनो। दावा कैसा? प्रेम कभी दावेदार बनता है? प्रेम तो कहता है : ‘जब भी आओगे, तभी मेरा सौभाग्य। जब भी आए, तभी जल्दी है। और मैं प्रतीक्षा को तैयार हूं। और प्रतीक्षा में भी उदास न होऊंगा, होऊंगा नहीं, थकूंगा नहीं। नाचूंगा, गाऊंगा। इंतजार को भी आनंद ही बनाऊंगा।’
■ ओशो
संत पलटू उत्सव के पक्षपाती हैं। उनके अनुसार प्रभु से मिलने का निकटतम मार्ग है उत्सव। निकटतम मार्ग है : नृत्य। वे कहते हैं बुलाओ प्रभु को–आनंद के आंसुओं से बुलाओ! पैरों में घुंघरू बांधो। नृत्य, गीत-गान से बुलाओ!हृदय की वीणा बजाओ! गीत को फूटने दो! उत्सव की बांसुरी बजाओ, रास रचाओ! देखते नहीं, परमात्मा चारो तरफ कितने उत्सव में है! चांद-तारों में, वृक्षों में, पक्षियों में! आदमी को छोड़ कर तुम्हें कहीं उदासी दिखाई पड़ती है?आदमी को छोड़ कर तुम्हें कहीं भी पाप दिखाई पड़ता है? आदमी को छोड़ कर कहीं तुम्हें चिंता दिखाई पड़ती है? सब तरफ उत्सव चल रहा है–अहर्निश!
सब तरफ नृत्य है, गान है।
इस विराट आनंद के महोत्सव में तुम अलग-अलग खड़े, दुर-टूर अपने अहंकार में अकड़े और जकड़े हो। उतारो इस अहंकार को, सम्मिलित हो जाओ इस नाच में। नाचो चांद-तारों के साथ! उसी नृत्य में तुम पाओगे कि परमात्मा की आख तुम पर पड़ने लगी। जब तुम उसे पुकारों, तो उदास, दुखी और चिंतित और
परेशान मत पुकारना। नहीं तो, तुमने हजार तो बाधाएं खड़ी कर दी; वह सुन कैसे पाएगा? उसे आती है भाषा—उत्सव की; उदासी की नहीं। पलटू उत्सव के पक्षपाती हैं। जिन्होंने जाना है, वे सभी उत्सव के पक्षपाती हैं। परमात्मा परम भोग है। प्रभु आता है–निश्चित आता है। जो भी निर-अंहकार दशा में, आनंद के उद्घोष से बुलाते हैं, उनके पास निश्चित आता है। आने को तड़पता है। तुम बुलाते नहीं। उसे पुकारना हो तो पुकारना तो जरूरी है, लेकिन ठीक ढंग से पुकारना जरूरी है। और वह ठीक ढंग है : नाचो, गाओ! उसे आनंद से बुलाओ। दावेदार मन बनो। दावा कैसा? प्रेम कभी दावेदार बनता है? प्रेम तो कहता है : ‘जब भी आओगे, तभी मेरा सौभाग्य। जब भी आए, तभी जल्दी है। और मैं प्रतीक्षा को तैयार हूं। और प्रतीक्षा में भी उदास न होऊंगा, होऊंगा नहीं, थकूंगा नहीं। नाचूंगा, गाऊंगा। इंतजार को भी आनंद ही बनाऊंगा।’
■ ओशो
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