जातिगत राजनीति: “हमाम में सब...” - Kashi Patrika

जातिगत राजनीति: “हमाम में सब...”


बाजार में खड़े होकर सबकी खैर मांगना संत-महापुरुषों की नीयत भी है और आदत भी। लेकिन 'राज‛नीति' ने पौराणिक काल से ही जाति-धर्म का व्यापार कर उसके सहारे चुनावी वैतरणा पार की है। नहीं तो, महाभारत में कर्ण को सवालों का सामना करते हुए यह न कहना पड़ता-
“मूल जानना बड़ा कठिन है नदियों का, वीरों का,
धनुष छोड़कर और गोत्र क्या होता है रणधीरों का?
पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर,
‘जाति-जाति’ का शोर मचाते केवल कायर, क्रूर।”


खैर, यह बात काफी पुरानी हो गई, किंतु राजनीति आज भी वहीं खड़ी है। 2014 में विकास की रथ पर सवार भाजपा ने जब बहुमत हासिल किया, तो कुछ समय को लगा कि मिथक टूट गए और देश की जनता अब धर्म-जाति की पुरानी राजनीति से उकता चुकी है। आम जन सिर्फ रोजी-रोजगार-विकास चाहता है। पर भ्रम टूटते गए और 2019 लोकसभा चुनाव ज्यों-ज्यों करीब आ रहा है फिजाओं में एक बार फिर धर्म-जाति, ऊंच-नीच, आरक्षण का जहर घुल-मिल गया है। सब अपनी-अपनी बात उग्र तरीके से रखने-समझाने में व्यस्त हैं और सियासतदार चैन की बंसी बजा रहे हैं, क्योंकि आम जन को सड़क-रोजगार-शिक्षा-अस्पताल देना मुश्किल है और इन वादों के पूरा न होने पर सवालों का सामना करना मुश्किल! तो चलो, अच्छा हुआ, जनता फिर बंट गई, क्योंकि ऐसी स्थिति से निपटने का तजुर्बा तो राजनीति के “डीएनए” में हमेशा से मौजूद रहा है। 

गौर करें, तो देखेंगे कि सभी राजनीतिक पार्टियां खुद को विकास की पक्षधर कहती हैं और जाति-धर्म की राजनीति को ओछा बताती हैं। तो चलिए, क्षेत्रीय दलों को छोड़कर देश की दो राष्ट्रीय पार्टियों की ही कथनी और करनी के अंतर को समझने की कोशिश करते हैं।

टीम राहुल में 75 फीसद ब्राह्मण, क्यों!
दलित, मुस्लिम सहित समाज के हर वर्ग के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाली कांग्रेस और उसके अध्यक्ष राहुल गांधी अपनी सियासी जमीन वापस पाने के लिए बेताब हैं और इसके लिए जाति-धर्म ही सबसे सुरक्षित सहारा उन्हें भी दिख रहा है। राहुल गांधी की वर्तमान कैलाश मानसरोवर यात्रा को उनकी निजी आस्था का विषय मान भी लें, तब भी गौशाला से लेकर कांग्रेस के डीएनए में ब्राह्मण जैसे हालिया बयानों की अनदेखी नहीं की जा सकती। इसी तरह यह बात भी महत्वपूर्ण है कि मोदी-शाह से लोहा लेने उतरे राहुल गांधी ने अपनी टीम में 75% सवर्णों को जगह दी है, जिसमें सबसे ज्यादा ब्राह्मण हैं। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने 25 अगस्त को 2019 के लिए कोर ग्रुप कमेटी, मैनिफ‌स्टो कमेटी और पब्लिसिटी कमेटी का गठन किया। इसमें चुन-चुनकर ब्राह्मणों को सिपहसालार बनाया गया है। इन समितियों में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अशोक तनवर, सुशील कुमार शिंदे, अनुभवी नेत्री व पूर्व राष्ट्रपति मीरा कुमार को जगह नहीं दी गई। या फिर ऐसे किसी नेता का नाम नहीं दिखता, जो जमीन से उठने की कोशिश कर रहा हो और कांग्रेस ने उसे मौका दिया हो।

2019  कांग्रेस कोर ग्रुप कमेटी, 9 में 5 अगड़ी जाति के
1. एके एंटनी (अगड़ी जाति)
2. गुलाम नबी आजाद (अगड़ी जाति)
3. पी़ चिचिदंबरम (ब्राह्मण, अगड़ी जाति)
4. अशोक गहलोत (राजपूत, अगड़ी जाति)
5. मल्लिकार्जुन खड़गे (निचली जाति)
6. अहमद पटेल (पिछड़ी जाति)
7. जयराम रमेश (ब्राह्मण, अगड़ी जाति)
8. रणदीप सुरजेवाला (जाट, पिछड़ी जाति)
9. केसी वेणुगोपाल (पिछड़ी जाति)

2019 कांग्रेस मैनिफेस्टो कमेटी, 19 में 12 अगड़ी जाति के
1. मनप्रीत सिंह बादल (राजपूत, अगड़ी जाति)
2. पी़ चिदंबरम (ब्राह्मण, अगड़ी जाति)
3. सुष्‍मिता देव (अगड़ी जाति)
4. राजीव गोवडा (अगड़ी जाति)
5. भूपेंद्र सिंह हुड्डा (जाट, पिछड़ी जाति)
6. जयराम रामेश (ब्राह्मण, अगड़ी जाति)
7. सलमान खुर्शीद (पिछड़ी जाति)
8. बिंदू कृष्‍णन (पिछड़ी जाति)
9. कुमारी शैलजा (राजपूत, अगड़ी जाति)
10. रघुवीर मीणा (मारवाणी, अगड़ी जाति)
11. प्रो. भालचंद्र मुंगेकर (दलित, निचली जाति)
12. मीनाक्षी नटराजन (अगड़ी जाति)
13. रजनी पाटिल (ब्राह्मण, अगड़ी जाति)
14. सैम पित्रोदा (पिछड़ी जाति)
15. सचिन राव (अगड़ी जाति)
16. ताम्रध्वज साहू (पिछड़ी जाति)
17. मुकुल संगामा (पिछड़ी)
18. शशि थरूर (अगड़ी जाति)
19. ललितेश त्रिपाठी (ब्राह्मण, अगड़ी जाति)

2019 कांग्रेस पब्लिसिटी कमेटी, 13 में 10 अगड़ी जाति के
1. भक्त चरनदास (निचली जाति)
2. प्रवीण चक्रवर्ती (ब्राह्मण, अगड़ी जा‌ति)
3. मिलिंद देवड़ा (राजपूत, अगड़ी जाति)
4. कुमार केतकर (अगड़ी जाति)
5. पवन खेड़ा (अगड़ी जाति)
6. वीडी सतीशन (निचली जाति)
7. आनंद शर्मा (अगड़ी जाति)
8. जयवीर शेरगिल (राजपूत, अगड़ी जाति)
9. राजीव शुक्ला (ब्राह्मण, अगड़ी जा‌ति)
10. दिव्या स्पंदना (अगड़ी जाति)
11. रणदीप सुरजेवाला (जाट, पिछड़ी जा‌ति)
12. मनीष तिवारी (ब्राह्मण, अगड़ी जा‌ति)
13. प्रमोद तिवारी (ब्राह्मण, अगड़ी जा‌ति)
यानी कांग्रेस अपने सवर्ण वोटरों को वापस अपने पाले में करने का प्रयास कर रही है, जोकि आजकल भाजपा का वोट बैंक बन गए हैं। 

इधर-उधर में फंसी भाजपा

भाजपा पर सवर्ण और बनियों की पार्टी होने का आरोप लगता रहा है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कबीर नगरी मगहर पहुंचने के बाद से ही कयास लगाया जा रहा था कि भाजपा दलित वोटरों को अपनी ओर करने के प्रयास में है। एससी/एसटी ऐक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने की मंशा से इस पर मुहर भी लग गई। हालांकि, इससे अन्य जातियां भाजपा से कितना संतुष्ट हुईं, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा, लेकिन इसे लेकर सवर्णों में नाराजगी बढ़ रही है और कांग्रेस मौके का फायदा उठाने की ताक में है। मुसीबत यह है कि भाजपा के भीतर भी इसे लेकर विरोध के सुर उठने लगे हैं, क्योंकि पार्टी के ज्यादातर प्रतिनिधि अगड़ी जाति से हैं।  

अपने ही विरोधी, क्योंकि...

2014 के आम चुनाव में भाजपा ने अपना चेहरा एकदम बदल लिया और हाल के वर्षों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यकों (खासकर मुस्लिम महिलाओं) के बीच अपनी कट्टर छवि को बदलने की भरपूर कोशिश की है, मगर हकीकत ये है कि आज भी भाजपा संगठन के स्तर पर अगड़ी जातियों की ही पार्टी बनी हुई है। परिणामस्वरूप पार्टी के अंदर से ही सवर्णों के हक में आवाज उठ रही है।  
‘दि प्रिंट’ ने बीजेपी में दलितों, आदिवासियों, पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों की स्थिति पर देशव्यापी सर्वे किया है। इस सर्वे रिपोर्ट में यह बात सामने आई कि भाजपा के 36 प्रदेश अध्यक्षों में एक भी दलित नहीं है। इनमें से सात ब्राह्मण, 17 अगड़ी जाति के लोग, 6 आदिवासी, पांच ओबीसी और एक मुस्लिम है। यानी कुल 66 फीसदी पदों पर उच्च जाति के लोग काबिज हैं। यहां तक कि बीजेपी के सबसे निचले स्तर के संगठन जिला अध्यक्षों के पद पर भी 65 फीसदी लोग उच्च जाति से ताल्लुक रखते हैं। 

‛आप’ का भी यही हाल

प्रधानमंत्री की पसंद को लेकर किए गए हालिया ऑनलाइन सर्वे में नरेंद्र मोदी जनता की पहली पसंद रहे, जबकि राहुल दूसरी और केजरीवाल तीसरी। अब दोनों पार्टियों की चर्चा हो गई, तो केजरीवाल के “आप” की बात करें, तो जाति को लेकर आप से अलग हुए नेता आशुतोष का बयान यह बताने को काफी है कि यह पार्टी भी जाति आधारित राजनीति से अछूती नहीं है। 

सवर्ण पर ही भाजपा-कांग्रेस का भरोसा क्यों?
सवर्णों के छोड़कर ज्यादातर जातियां क्षेत्रीय दलों पर भरोसा करती दिखती हैं। इसके अलावा यहां स्थानीय नेताओं पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है। 2014 के चुनाव पर नजर डालें तो, 54.1 फीसद सवर्ण वोट भाजपा को मिले, जबकि कांग्रेस को 12.1 फीसद सवर्ण वोट से संतोष करना पड़ा। इसी तरह, मोदी लहर में जहां सबकुछ बह गया, तबी भी भाजपा को मिले वोटों में सवर्ण का प्रतिशत सबसे ज्यादा रहा। भाजपा को एससी का 24, अति पिछड़ा का 42.1, पिछड़ा का 30.2 फीसद वोट मिला, जबकि सभी ने जाति-धर्म से ऊपर उठकर मतदान किया था। यानी ये समझना मुश्किल नहीं कि कांग्रेस भाजपा के वोट बैंक में सेंध लगाने की जुगत तलाश रही है। वैसे भी, यह कांग्रेस का ही वोट बैंक रहा है, जो हाल-फिलहाल भाजपा का होता गया। 
फिलहाल, जाति-धर्म एक बार फिर मुंह उठा रहा है, क्योंकि नोटबंदी, पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दाम, रोजगार, अयोध्या, कश्मीर सहित विभिन्न मुद्दों पर भाजपा मौन है। उधर, कांग्रेस अपनी बात रखने की बजाय भाजपा को उसी के मुद्दों पर चौतरफा घेरने के मूड में दिख रही है। अगर क्षेत्रीय दलों के साथ महागठबंधन की बात बनती है, तो वहां भी मुकाबला यथासंभव जातिगत समीकरण पर ही होगा। महाराष्ट्र में मराठा आंदोलन तो यही इशारा करता है। यानी फिर 

देश की सियासत उन्हीं पुराने दिनों में वापसी कर रही है, जहां जनता बटी हो। 
कुल मिलाकर, गौ, डीएनए, मॉब लिचिंग, धार्मिक यात्राएं कुछ भी राजनीति से इतर नहीं लगता। सब एक-दूसरे में गुथे से हैं। इस बीच, भाजपा अपने ही दांव में उलझती दिख रही है। और कांग्रेस उसे सवर्णों पर पटखनी देने के लिए जमीन तलाश रही है। जाति-धर्म की पुरानी बिसात पर शह-मात के इस खेल में किसके हिस्से क्या आता है, यह तो आने वाला वक्त बताएगा। 

बहरहाल, रामधारी सिंह ‛दिनकर’ की यह कविता आज के संदर्भ में भी सच दिखती है-
ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो ,
किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो?
किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से,
भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?
कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान । 
...समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध॥

■ सोनी सिंह

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