समलैंगिक संबंधों को लेकर हर किसी का अपना व्यक्तिगत नजरिया हो सकता है, लेकिन इससे इस सच को नहीं झुठलाया जा सकता कि हमारे बीच ऐसे लोग रहते हैं और जीवन के प्रति उनकी अपनी अलग सोच है। समाज की इसी बंद सोच को बदलने की कोशिश करते चंद लोगों को सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी मर्जी से जीने का हक दे दिया। गुरुवार को सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिकों की निजता का सम्मान करते हुए धारा 377 को समाप्त करने का ऐतिहासिक और उदार निर्णय दिया। इसका एलजीबीटी समुदाय के साथ ही उदारवादी लोकतांत्रिक समाज ने भी स्वागत किया। हालांकि, न्यायालय के इस फैसले को सामाजिक स्वीकृति पाने के लिए अभी और इंतजार करना पड़ सकता है। परन्तु सालों लंबे इस संघर्ष में जीत के बाद एलजीबीटी समुदाय के चेहरे पर मुस्कान और दिल में सुकून है।
बहरहाल, धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यों की खंडपीठ ने इस फैसले में न सिर्फ अपने ही 2013 के फैसले को पलट दिया है, बल्कि दिल्ली हाईकोर्ट के 2009 के निर्णय को भी स्वीकार कर लिया है। पांच न्यायाधीशों के पीठ ने अपने फैसले 495 पेज में चार अलग-अलग फैसलों में कहा कि एलजीबीटी समुदाय को देश के दूसरे नागरिकों के समान ही सांविधानिक अधिकार प्राप्त हैं। पीठ ने कहा कि यौन प्राथमिकता जैविक और प्राकृतिक है। अंतरंगता और निजता किसी का निजी चुनाव है, इसमें राज्य को दखल नहीं देना चाहिए। इस मामले में किसी भी तरह का भेदभाव मौलिक अधिकारों का हनन है। न्यायालय ने यह तर्क दिया गया था कि ब्रिटिश शासन के दौरान बने इस कानून का अब कोई औचित्य नहीं है। दुनिया के बहुत सारे देश समलैंगिकता को मान्यता दे चुके हैं। पर हमारे यहां अब भी इस कानून के तहत दो समान लिंगी लोगों के परस्पर यौन संबंध बनाने, विवाह करने आदि पर चौदह साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा का प्रावधान लागू था। इस कानून की वजह से समाज का नजरिया भी ऐसे लोगों के प्रति नहीं बदल पा रहा था। कानून व्यक्ति, समाज और देश के हितों को ध्यान में रखते हुए बनाए जाते हैं। इसलिए बदली परिस्थितियों के अनुसार उनमें संशोधन होते रहते हैं।
कुल मिलाकर, सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिकता को स्वीकृति देकर एक तरह से समाज के संकीर्ण नजरिए को बदलने की दिशा में भी सराहनीय कदम बढ़ाया है। अब बारी समाज की है कि वह अपने बंद सोच के दरवाजे ऐसे लोगों के लिए खोले ताकि वह भी हमारी तरह बिना हिकारत के जी सकें। क्योंकि, आंख मूंद लेने से सच को नहीं बदला जा सकता!
■ संपादकीय
बहरहाल, धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यों की खंडपीठ ने इस फैसले में न सिर्फ अपने ही 2013 के फैसले को पलट दिया है, बल्कि दिल्ली हाईकोर्ट के 2009 के निर्णय को भी स्वीकार कर लिया है। पांच न्यायाधीशों के पीठ ने अपने फैसले 495 पेज में चार अलग-अलग फैसलों में कहा कि एलजीबीटी समुदाय को देश के दूसरे नागरिकों के समान ही सांविधानिक अधिकार प्राप्त हैं। पीठ ने कहा कि यौन प्राथमिकता जैविक और प्राकृतिक है। अंतरंगता और निजता किसी का निजी चुनाव है, इसमें राज्य को दखल नहीं देना चाहिए। इस मामले में किसी भी तरह का भेदभाव मौलिक अधिकारों का हनन है। न्यायालय ने यह तर्क दिया गया था कि ब्रिटिश शासन के दौरान बने इस कानून का अब कोई औचित्य नहीं है। दुनिया के बहुत सारे देश समलैंगिकता को मान्यता दे चुके हैं। पर हमारे यहां अब भी इस कानून के तहत दो समान लिंगी लोगों के परस्पर यौन संबंध बनाने, विवाह करने आदि पर चौदह साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा का प्रावधान लागू था। इस कानून की वजह से समाज का नजरिया भी ऐसे लोगों के प्रति नहीं बदल पा रहा था। कानून व्यक्ति, समाज और देश के हितों को ध्यान में रखते हुए बनाए जाते हैं। इसलिए बदली परिस्थितियों के अनुसार उनमें संशोधन होते रहते हैं।
कुल मिलाकर, सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिकता को स्वीकृति देकर एक तरह से समाज के संकीर्ण नजरिए को बदलने की दिशा में भी सराहनीय कदम बढ़ाया है। अब बारी समाज की है कि वह अपने बंद सोच के दरवाजे ऐसे लोगों के लिए खोले ताकि वह भी हमारी तरह बिना हिकारत के जी सकें। क्योंकि, आंख मूंद लेने से सच को नहीं बदला जा सकता!
■ संपादकीय
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