साहित्यिक झरोखा:आदर्श प्रेम के रचयिता 'मंझन' - Kashi Patrika

साहित्यिक झरोखा:आदर्श प्रेम के रचयिता 'मंझन'


विक्रम धँसा प्रेम के बारा । सपनावति कहँ गयउ पतारा॥
मधुपाछ मुगधावति लागी । गगनपुर होइगा बैरागी॥
राजकुँवर कंचनपुर गयऊ । मिरगावती कहँ जोगी भयऊ॥
साधो कुँवर ख्रडावत जोगू । मधुमालति कर कीन्ह बियोगू॥
प्रेमावति कह सुरबर साधा। उषा लागि अनिरुधा बर बाँधा॥

सूफियों के अनुसार, यह सारा जगत् एक ऐसे रहस्यमय प्रेमसूत्र में बँधा है, जिसका अवलंबन करके जीव उस प्रेममूर्ति तक पहुँचने का मार्ग पा सकता है। सूफी सब रूपों में उसकी छिपी ज्योति देखकर मुग्ध होते हैं, 'प्रेम-रस बून्दन' के दीवाने हो जाते हैं। मधुमालती के विराट्, व्यापक और अनुपम रूप-सौन्दर्य का वर्णन करते हुए मंझन कहते हैं౼
देखत ही पहिचानेउ तोहीं। एही रूप जेहि छँदरयो मोही
एही रूप बुत अहै छपाना। एही रूप रब सृष्टि समाना
एही रूप सकती औ सीऊ। एही रूप त्रिभुवन कर जीऊ
एही रूप प्रगटे बहु भेसा। एही रूप जग रंक नरेसा

उपर्युक्त पंक्तियों में मंझन ने समासोक्ति पद्धति में ईश्वर की ओर संकेत किया है और मधुमालती के रूप-सौन्दर्य  के बहाने समस्त सौन्दर्य के शाश्वत स्रोत परम प्रीतम ईश्वर के अनुपम रूप-सौन्दर्य का सरस, सम्मोहक और जीवन्त चित्रण किया है। सुन्दर वस्तु शाश्वत और आनन्ददायिनी होती है। इन पंक्तियों में प्रकृति में व्याप्त ईश्वर के व्यापक रूप-सौन्दर्य की ओर संकेत किया है। मतलब यह कि जायसी ने जिस पारसरूप की कल्पना की है, मंझन ने उसी का परिचय बखूबी इन पंक्तियों में कराया है। ईश्वर सर्वव्यापी है, यत्र-तत्र सर्वत्र मौजूद है, सृष्टि के कण-कण में विभिन्न रूपों में मौजूद है। प्रकृति के कण-कण से प्रभु के रूप-सौन्दर्य की अनुपम आभा तीनों लोकों में निरन्तर प्रकट हो रही है।

ईश्वर का विरह, प्रेम की पीर सूफियों के यहाँ भक्त की प्रधान संपत्ति है, जिसके बिना साधना के मार्ग में कोई प्रवृत्त नहीं हो सकता, किसी की आँख नहीं खुल सकती౼
बिरह अवधि अवगाह अपारा । कोटि माहिं एक परै त पारा
बिरह कि जगत् अबिरथा जाही?। बिरह रूप यह सृष्टि सबाही
नैन बिरह अंजन जिन सारा । बिरह रूप दरपन संसारा
कोटि माहिं बिरला जग कोई । जाहि सरीर बिरह दु:ख होई
रतन की सागर सागरहिं, गजमोती गज कोइ।
चंदन कि बन बन ऊपजै, बिरह कि तन तन होइ?

जिसके हृदय में वह विरह होता है, उसके लिए यह संसार स्वच्छ दर्पण हो जाता है और इसमें परमात्मा का आभास अनके रूपों में होता है। तब वह देखता है कि इस सृष्टि के सारे रूप, सारे व्यापार उसी का विरह प्रकट कर रहे हैं।

इस प्रकार मंझन कृत 'मधुमालती' प्रेम की सर्वोच्च और आदर्श कथा बखान करती है। 'मधुमालती' का रचनाकाल सन् 1545 ई. है। इसमें कनकगिरि नगर के राजा सुरजभान के पुत्र मनोहर और महारस नगर नरेश विक्रमराय की कन्या मधुमालती की सुखांत प्रेमकहानी कही गई है।

मधुमालती की कथा कनेसर नगर के राजा सूरजभान के पुत्र मनोहर नामक एक सोए हुए राजकुमार को अप्सराएँ रातोंरात महारस नगर की राजकुमारी मधुमालती की चित्रसारी में रख आईं। वहाँ जागने पर दोनों का साक्षात्कार हुआ और दोनों एक दूसरे पर मोहित हो गए। पूछने पर मनोहर ने अपना परिचय दिया और कहा 'मेरा अनुराग तुम्हारे ऊपर कई जन्मों का है। इससे जिस दिन मैं इस संसार में आया, उसी दिन से तुम्हारा प्रेम मेरे हृदय में उत्पन्न हुआ।' बातचीत करते-करते दोनों एक साथ सो गए और अप्सराएँ राजकुमार को उठाकर फिर उसके घर पर रख आईं। दोनों जब अपने-अपने स्थान पर जगे, तब प्रेम में बहुत व्याकुल हुए। राजकुमार वियोग से विकल होकर घर से निकल पड़ा और उसने समुद्र मार्ग से यात्रा की। मार्ग में तूफान आया, जिसमें इष्ट मित्र इधर-उधर बह गए। राजकुमार एक पटरे पर बहता हुआ एक जंगल में जा लगा, जहाँ एक स्थान पर एक सुंदर स्त्री पलँग पर लेटी दिखाई पड़ी। पूछने पर जान पड़ा कि वह चितबिसरामपुर के राजा चित्रसेन की राजकुमारी प्रेमा थी, जिसे एक राक्षस उठा लाया था। मनोहर राजकुमार ने उस राक्षस को मारकर प्रेमा का उद्धार किया। प्रेमा ने मधुमालती का पता बता कर कहा कि मेरी वह सखी है। मैं उसे तुझसे मिला दूँगी। मनोहर को लिए हुए प्रेमा अपने पिता के नगर में आई। मनोहर के उपकार को सुनकर प्रेमा का पिता उसका विवाह मनोहर के साथ करना चाहता है। पर प्रेमा यह कहकर अस्वीकार करती है कि मनोहर मेरा भाई है और मैंने उसे उसकी प्रेमपात्री मधुमालती से मिलाने का वचन दिया है।

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