केशवदास |
हिंदी साहित्य में एक समय ऐसा आया कि साहित्कारों ने 200 वर्षों तक रीतिकाव्य की रचना की। हिंदी साहित्य में इस कालखंड को रीतिकाल माना गया हैं। यह काव्य मुख्य रूप से राजाश्रय से पुष्पित व पल्लवित हुआ और इस काल के काव्य मांसल श्रृंगार के काव्य हैं। रीतिकाव्य रचना का आरंभ एक संस्कृतज्ञ ने किया। ये थे आचार्य केशवदास, जिनकी सर्वप्रसिद्ध रचनाएँ कविप्रिया, रसिकप्रिया और रामचंद्रिका हैं। केशव का जन्म वर्तमान मध्यप्रदेश राज्य के अंतर्गत ओरछा नगर में 1546 ईस्वी में हुआ था। इनका जन्म भारद्वाज गोत्रीय सना ब्राह्मणों के वंश में हुआ। इनको ‘मिश्र’ कहा जाता है। अपनी कृति रामचन्द्रिका के आरंभ में सना जाति के विषय में उन्होंने कई पंक्तियां कही हैं।
'सना जाति गुना है जगसिद्ध सुद्ध सुभाऊ
प्रकट सकल सनोढियनि के प्रथम पूजे पाई.... '
केशवदास के पिता का नाम पं काशीनाथ था। ओरछा के राजदरबार में उनके परिवार का बड़ा मान था। केशवदास स्वयं ओरछा नरेश महाराज रामसिंह के भाई इन्द्रजीत सिंह के दरबारी कवि, मन्त्री और गुरु थे। राजा इन्द्रजीतसिंह साहित्य और संगीत के मर्मज्ञ थे। केशवदास को इन्होंने ही रसिक-प्रिया की रचना की प्रेरणा दी।इन्द्रजीत सिंह के बाद वीरसिंहदेव ओरछा के राजा बने। केशव वीरसिंहदेव के दरबार से जुट गए। वीरसिंहदेव की प्रेरणा पाकर केशव ने विज्ञानगीता की रचना की। केशवदास को इन्द्रजीतसिंह तथा वीरसिंहदेव के अलावा रामशाद, रतनसेन, अमरसिंह तथा चन्द्रसेन ने सम्मान देकर आश्रय प्रदान किया। इन सभी राजाओं के बारे में केशव ने अपनी कृतियों में कुछ छन्दों की रचना करके, उनको अपने लक्षण ग्रंथों में दे दिया है। रतनसेन की प्रशंसा में ही रतनबावनी की रचना की गई थी।
केशव का सम्बन्ध जहांगीर और अकबर के दरबार से : वीरसिंहदेव के मित्र जहांगीर की प्रशस्ति में केशव ने जहांगीरजसचन्द्रिका लिखी। यहाँ यह कहना कठिन है कि केशव के जहांगीर आश्रयदाता थे। वीरसिंहदेव के विपत्ति के दिनों में जहांगीर ने उनकी सहायता की थी, इसीलिए केशव ने अपने आश्रयदाता के मित्र को अमर बता दिया। केशव ने रहीम की प्रशंसा कई स्थानों पर की है।
केशव का व्यक्तित्व पौराणिक और शास्रीय ज्ञान से मंडित होकर भाषा की ओर झुक गया था। ओरछा के राजवंश से तो केशव का वंश संबाद था ही इसके अलावा ब्रज के वैष्णव संप्रदायों से भी उनका सम्बन्ध होने का प्रमाण मिलता है। यह कहा जा सकता है कि केशव बल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षित थे। विट्ठलनाथ जी उनके मंत्र गुरु थे उनकी प्रशस्ति में केशव ने लिखा है –
'हरि दृढ़ बाल गोबिन्द विभु पायक सीतानाथ।
लोकप बिट्ठल शंखधर गरुड़ध्वज रघुनाथ।।'
केशव बहुमुखी प्रतिभा के मालिक : केशव धर्म, ज्योतिष, संगीत, भुगोल, वैद्यक, वनस्पति, पुराण, राजनीति, अश्व-परीक्षा, कामशास्र आदि शास्रों के सामान्य ज्ञाता थे। इस बहुलता ने केशव के काव्य प्रस्तुतिकरण को मजीद समृद्ध किया। काव्यशास्र, नीतिशास्र और कामशास्र के वह विशेषज्ञ प्रतीत होते हैं। एक तरफ बहुज्ञाता ने केशव की काव्य साधना को प्रभावित किया वहीं दूसरी तरफ उनको राजसम्मान भी प्राप्त कराने का काम किया। केशव की कृतियों में अनेकों स्थानों पर उनकी बहुज्ञता को दर्शाया गया है। केशव को अपने पांडित्य पर गर्व था। 'जानत सकल जहान, कवि सिमोर....', इस तरह की उक्तियाँ अपने लिए उन्होंने लिखी है।
केशवदास रचित प्रामाणिक ग्रंथ नौ हैं : रसिकप्रिया, कविप्रिया, नखशिख, छंदमाला, रामचंद्रिका, वीरसिंहदेव चरित, रतनबावनी, विज्ञानगीता और जहाँगीर जसचंद्रिका। रसिकप्रिया केशव की प्रौढ़ रचना है जो काव्यशास्त्र संबंधी ग्रंथ हैं। इसमें रस, वृत्ति और काव्यदोषों के लक्षण उदाहरण दिए गए हैं। रामचंद्रिका उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध महाकाव्य है।
संवत 1608 के लगभग जहांगीर ने ओरछा का राज्य वीर सिंह देव को दे दिया। केशव कुछ समय तक वीर सिंह के दरबार में रहे, फिर गंगातट पर चले गए और वहीं रहने लगे। 1618 ईस्वी में उनका देहावसान हो गया।
'केसव' चौंकति सी चितवै, छिति पाँ धरिकै तरकै तकि छाँहीं। बूझिये और कहै मुख और, सु और की और भई छिन माहीं॥दीठि लगी किधौं बाइ लगी, मन भूलि पर्यो कै कर्यो कछु काहीं।घूँघट की, घट की, पट की, हरि आजु कछू सुधि राधिकै नाहीं॥
स्वयम्बर-कथा ( रामचंद्रिका से )
[दोहा]खंड्परस को सोभिजे, सभामध्य कोदंड।मानहुं शेष अशेष धर, धरनहार बरिबंड।।१।।
[सवैया]सोभित मंचन की आवली, गजदंतमयी छवि उज्जवल छाई।ईश मनो वसुधा में सुधारि, सुधाधरमंडल मंडि जोन्हई।।तामहँ केशवदास विराजत, राजकुमार सबै सुखदाई।देवन स्यों जनु देवसभा, सुभ सीयस्वयम्वर देखन आई।।२।।
[घनाक्षरी]पावक पवन मणिपन्नग पतंग पितृ, जेते ज्योतिविंत जग ज्योतिषिन गाए है।असुर प्रसिद्ध सिद्ध तीरथ सहित सिंधु, केशव चराचर जे वेदन बताए हैं।अजर अमर अज अंगी औ अनंगी सब, बरणि सुनावै ऐसे कौन गुण पाए हैं।सीता के स्वयम्वर को रूप अवलोकिबे कों, भूपन को रूप धरि विश्वरूप आयें हैं।।३।।
[सवैया]सातहु दीपन के अवनिपति हारि रहे जिय में जब जानें।बीस बिसे व्रत भंग भयो, सो कहो, अब, केशव, को धनु ताने?शोक की आग लगी परिपूरण आई गए घनश्याम बिहाने|जानकी के जनकादिक के सब फूली उठे तरुपुन्य पुराने||४||
विश्वामित्र और जनक की भेंट
[दोधक छंद]आई गए ऋषि राजहिं लीने| मुख्य सतानंद बिप्र प्रवीने||देखि दुवौ भए पायनी लीने| आशिष शिर्श्वासु लै दीने||५||
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