क्या आपको नहीं लगता कि अमानवीय स्थिति में रहना भी गरीबी का ही परिचायक हैं ? कुछ मुठ्ठी भर लोगों की सम्पन्नता की दुहाई कब तक केंद्र और राज्य की सरकारें देती रहेंगी? क्या आप को नहीं लगता की केंद्र और राज्य की सरकारों की नीतियों में खोट है, जो आजादी के 71 सालों बाद भी देश को गरीबी से निजाद दिलाने में सक्षम नहीं है। अगर आप का उत्तर 'न' में है, तो आप भी उन चुनिंदा लोगों की सूची में अपना नाम लिखवा सकते हैं, जो देश के समुचित विकास की दुहाई देते नहीं थकते।
हालिया कुछ विशिष्ट अखबारों की रिपोर्ट पर गौर करे तो आपको हैरानी होगी कि इतनी अव्यवस्था के बीच भी वो भारत के लोगों के समुचित विकास का खाका खींच रहे हैं। रिपोर्ट की माने तो 1.3 बिलियन की आबादी वाले देश भारत में केवल 5 % लोग ही भीषण गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करते हैं। और जनसँख्या के हिसाब से सबसे ज्यादा गरीब लोगों के देश का तमगा अब भारत से नाइजीरिया ने छीन लिया है। तो क्या हम ये मान सकते हैं अब सबकुछ ठीक हो रहा हैं और भारत समुचित विकास के पथ पर आगे बढ़ गया हैं ?
बिल्कुल नहीं, देश में अब भी गरीबी अपने चरम पर बनी हुई हैं और अमीर-गरीब के बीच की खाई पटने की जगह और बढ़ती जा रही हैं। आप बचपन से लेकर बुढ़ापे तक अमीर और गरीब को दो भिन्न प्रकार की जिंदगी जीते देख सकते हैं। देश में गरीब की शिक्षा का स्तर अब भी वही बना हुआ है कि जो उसे केवल दो जून की रोटी दिलवा सकता हैं। उसके कार्य करने और रहने के स्थल भी उसी प्रकार से अव्यवस्थित रहते हैं और बुढ़ापे तक हाड़ तोड मेहनत करने के पश्चात् भी वह अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ भी छोड़कर नहीं जा पाता। जब गरीब लोगों को क़्वालिटी शिक्षा ही नसीब नहीं है, तो भविष्य अधर में लटके इसकी पूरी गारंटी है।
मामला केवल यही नहीं रुकता वरन ये अमीर-गरीब के बीच की खाई तब और बढ़ जाती हैं जब सरकार की नीतिया भी कुछ चुनिंदा लोगों के इर्द-गिर्द सिमट जाती हैं। और अगर उनका विस्तार कभी गरीब के दरवाजे तक पहुँचता भी है, तो उसमें इतनी खामिया उत्प्न्न हो जाती है कि बिचौलिये समस्त योजनाओं का बंटाधार कर देते हैं। गरीब लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं का खाका कभी नीति नियंताओं ने खींचा ही नहीं और खींचा भी तो उन्हें रोटी, कपड़ा और मकान तक सीमित कर दिया। नैतिक शिक्षा और विज्ञान का विस्तार शायद अगर किसी देश में सबसे कम है, तो वो भारत में ही हैं। लोग आज भी सदियों पुरानी रूढ़ियों और अन्धविश्वास के साथ जीने को मजबूर हैं और सामाजिक एक ताना बाना जिसने सदियों से भारत को बचा के रखा था वो अब गावों में भी टूटने लगा हैं।
इन सब के बीच देश को गरीबी और अव्यवस्था से उबारने के लिए एक भगीरथ प्रयास की आवश्यकता है। यह प्रयास केवल सरकारी फाइलों और नेताओं के भाषण तक सीमित न हो वरन इनका फल धरातल पर नजर आना चाहिए। प्रयास की दिशा धरातल से ऊपर की ओर होनी चाहिए न कि नीति नियंताओं के आलिशान बंगले से गरीब की झोपड़ी तक। और परिणाम भी त्वरित हो वर्ना देश अब धीरे-धीरे उस दिशा में बढ़ रहा है, जहां अर्थव्यवस्था से लेकर मूलभूत जरूरतों तक हर क्षेत्र में सबकुछ खत्म होने की कगार पर खड़ा दिख रहा है।
■संपादकीय
इन सब के बीच देश को गरीबी और अव्यवस्था से उबारने के लिए एक भगीरथ प्रयास की आवश्यकता है। यह प्रयास केवल सरकारी फाइलों और नेताओं के भाषण तक सीमित न हो वरन इनका फल धरातल पर नजर आना चाहिए। प्रयास की दिशा धरातल से ऊपर की ओर होनी चाहिए न कि नीति नियंताओं के आलिशान बंगले से गरीब की झोपड़ी तक। और परिणाम भी त्वरित हो वर्ना देश अब धीरे-धीरे उस दिशा में बढ़ रहा है, जहां अर्थव्यवस्था से लेकर मूलभूत जरूरतों तक हर क्षेत्र में सबकुछ खत्म होने की कगार पर खड़ा दिख रहा है।
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