काशी सत्संग: “हरि बिन राखनहार ना कोई” - Kashi Patrika

काशी सत्संग: “हरि बिन राखनहार ना कोई”


एक ब्राह्मण भगवान का बड़ा भक्त था।  भगवान को भोग लगाए बिना अन्न का दाना तक मुंह में नहीं डालता था। घर में कुछ आए, तो भगवान को अर्पित करता फिर उसका उपयोग करता। ब्राह्मण की अनन्य भक्ति से उसकी पत्नी काफी चिढ़ती थी। एक दिन उसकी पत्नी गुस्से में बोली, “तुम जो इतना करते हो, क्या सचमुच भगवान खाते हैं? हर चीज तुम मंदिर लेकर पहुंच जाते हो, अबकी बार भगवान को खिलाए बिना मत लौटना।”
ब्राह्मण के मन में पत्नी की बात लग गई। उसने प्रण किया कि आज कुछ हो जाये, वो भगवन को बिना खिलाए नहीं लौटेगा। वह मंदिर  पहुंचा। भगवान के सामने लड्डू की थाली रख दी और प्रार्थना करने लगा प्रभु भोग स्वीकार कर लें। एक पहर बीत, दूसरे पहर को आई, लेकिन भगवान नहीं आए। हां! कुछ चीटियां, मक्खियां जरूर आ गईं। ब्राह्मण की नजर कुछ कुत्तों पर गई, जो लड्डू पर नजर गड़ाए थे। इतने में वहां कुछ भिखारी आ गए। उनमें से एक ने तो हिम्मत करके लड्डू को उठा भी लिया, लेकिन ब्राम्हण ने उसे भी भगा दिया। ब्राह्मण भगवान की बाट जोहता रहा, किंतु प्रभु तो आने का नाम ही नहीं ले रहे थे। रात होने को आई, पर भगवान नहीं आए, तब ब्राह्मण को गुस्सा आ गया। उसने लड्डू की थाली मंदिर के बाहर फेंक दी और घर आ गया।
पत्नी ने उसे देखकर बीवी ने पूछा, “भगवान को खिलाकर आ गए।” ब्राह्मण उत्तर दिए बिना बिस्तर पर जाकर सो गया। रात में उसके स्वप्न में भगवान आए और बोले, “हे ब्राह्मण लड्डू बहुत ही स्वादिष्ट थे, लेकिन थोड़ी मिट्टी लग गई थी। मैं तो सुबह से ही इंतजार कर रहा था, कभी चींटी, तो कभी भिखारी बनकर आया, मगर लड्डू नहीं मिले। अंत में ही मिला तो सही।” भक्त और भगवान के अनूठे रिश्ते पर रहीम ने बड़ी अच्छी बात कही है-
“दिव्य दीनता के रसहिं, का जाने जग अंधु
भली बिचारी दीनता, दीनबंधु से बंधु॥”
ऊं तत्सत...

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