काशी सत्संग: नास्तिक को यूं मिले प्रभु - Kashi Patrika

काशी सत्संग: नास्तिक को यूं मिले प्रभु


एक छोटा सा गांव था। गांव में एक वृद्ध साधु थे, जो गांव से थोड़ी सी दूरी पर स्थित श्रीकृष्ण मंदिर में कन्हैया की पूजा-अर्चना करते। और प्रतिदिन सायंकाल नियमपूर्वक अपनी झोपड़ी से निकलकर मंदिर जाते और भगवान के सम्मुख दीपक जलाते।
उसी गांव में एक नास्तिक व्यक्ति भी रहता था। उसने भी प्रतिदिन का नियम बना रखा था ‛दीपक बुझाने का’। जैसे ही साधु भगवान के सामने दीपक जला कर मंदिर से घर लौटते, वह नास्तिक मंदिर में जाकर दीपक को बुझा देता था। साधु ने कई बार उसे समझाने का प्रयत्न किया, पर वह कहता- “भगवान हैं, तो स्वयं ही आकर मुझे दीपक बुझाने से क्यों नहीं रोक देते?”
“बड़ा ही नास्तिक है तू...” कहते हुए साधु भी निकल जाते।
यह क्रम महीनों, वर्षों से चल रहा था। एक दिन की बात है, मौसम कुछ ज्यादा ही खराब था। आंधी-तूफान के साथ मूसलाधार बारिश हो रही थी। बारिश कुछ कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी। साधु ने बहुत देर तक मौसम साफ होने की प्रतीक्षा की, और सोचा- ‛इतने तूफान में यदि मैं भीगते, परेशान हुए मंदिर गया भी और दीपक जला भी दिया, तो वह शैतान नास्तिक आकर बुझा ही देगा। रोज ही बुझा देता है। अब आज नहीं जाता हूं। कल प्रभु से क्षमा मांग लूंगा। वैसे भी, भगवान कौन सा दर्शन ही दे देंगे!’ यह सब सोच कर साधु ने मंदिर न जाने का निश्चय किया और घर में ही दुबका रहा।
उधर, नास्तिक को पता था कि साधु मंदिर जरूर आएगा, दीपक जलाएगा। वह अपने नियत समय पर मंदिर पहुंच गया। घंटों प्रतीक्षा करता रहा, लेकिन साधु नहीं आया। अंत में क्रोधित होकर नास्तिक ने निर्णय लिया कि मैं दीपक बुझाकर ही दम लूंगा, भले दीपक जलाकर बुझाना पड़े। यह सोच कर उसने वहां रखे दीपक में घी भरा और उसे जला दिया।
बस फिर क्या था! भगवान उसी समय प्रकट हो गए, बोले- “उस साधु से भी अधिक श्रद्धा और विश्वास तुम्हारे अंदर है, इतने तूफान में भीग कर भी तुम यहां आ गए। आज ही तो मुझे आना था, जो आया,उसने पाया। यही तो कहा है कबीर ने-
“जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ, 
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।”
जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ लेकर ही आता है। लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं, जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते.
ऊं तत्सत...

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