जीना ही जीवन का उद्देश्य है - Kashi Patrika

जीना ही जीवन का उद्देश्य है

फूल निरुद्देश्य खिला है। और जब कोई निरुद्देश्य खिलेगा, तभी पूरा खिल सकता है, क्योंकि जहां भीतर उद्देश्य है, वहां थोड़ा अटकाव हो जाएगा...

तुम पूछते हो कि प्रकृति में सभी निरुद्देश्य है, तो हम ही क्यों उद्देश्य लेकर चलें? अगर सब उद्देश्य छोड़ सको तो इससे बड़ा कोई उद्देश्य नहीं हो सकता। अगर प्रकृति जैसे हो सको, तो सब हो गया। लेकिन आदमी अप्राकृतिक हो गया है, इसलिए वापस लौटने के लिए, उसे प्रकृति तक जाने के लिए भी उद्देश्य बनाना पड़ता है। हमने इतना पकड़ लिया है कि छोड़ना भी उद्देश्य ही होगा। छोड़ने में भी मेहनत करनी होगी!
प्रकृति निररुद्देश्य है। एक फूल खिला। वह किसी के लिए नहीं खिला है; और किसी बाजार में बिकने के लिए भी नहीं खिला है; राह से कोई गुजरे और उसकी सुगंध ले, इसलिए भी नहीं खिला है। फूल बस खिला है, क्योंकि खिलना आनंद है, इसलिए ऐसा भी कह सकते हैं कि फूल निरुद्देश्य खिला है। और जब कोई निरुद्देश्य खिलेगा, तभी पूरा खिल सकता है, क्योंकि जहां उद्देश्य है भीतर वहां थोड़ा अटकाव हो जाएगा। अगर फूल इसलिए खिला है कि कोई निकले, उसके लिए खिला है, तो अगर वह आदमी अभी रास्ते से नहीं निकल रहा तो फूल अभी बंद रहेगा; जब वह आदमी आएगा तब खिलेगा। लेकिन जो फूल बहुत देर बंद रहेगा, हो सकता है उस आदमी के पास आ जाने पर भी खिल न पाए, क्योंकि न खिलने की आदत मजबूत हो जाएगी। फूल इसी लिए पूरा खिल पाता है कि कोई उद्देश्य नहीं है।
ठीक ऐसा ही आदमी भी होना चाहिए। लेकिन आदमी के साथ कठिनाई यह है कि वह सहज नहीं रहा है, वह असहज हो गया है। उसे सहज तक वापस लौटना है। और यह लौटना फिर एक उद्देश्य ही होगा। तो मैं जब उद्देश्य की बात करता हूं, तो वह उसी अर्थों में जैसे पैर में कांटा लग गया हो, और दूसरे कांटे से उसे निकालना पड़े। अब कोई आकर कहे कि मुझे कांटा लगा ही नहीं है, तो मैं क्यों कांटे को निकालूं? उससे मैं कहूंगा, निकालने का सवाल ही नहीं है, तुम पूछने ही क्यों आए हो? कांटा नहीं लगा है, तब बात ही नहीं है। लेकिन कांटा लगा है, तो फिर दूसरे कांटे से निकालना पड़ेगा।
वह मित्र यह भी कह सकता है कि एक कांटा तो वैसे ही मुझे परेशान कर रहा है, अब आप दूसरा कांटा और पैर में डालने को कहते हो! पहला कांटा परेशान कर रहा है, लेकिन एक कांटे को दूसरे कांटे से ही निकालना पड़ेगा। हां, एक बात ध्यान रखनी जरूरी है कि दूसरे कांटे को घाव में वापस मत रख लेना-कि इस कांटे ने बड़ी कृपा की, एक कांटे को निकाला; तो अब इस कांटे को हम अपने पैर में रख लें। तब नुकसान हो जाएगा। जब कांटा निकल जाए, तो दोनों कांटे फेंक देना।
हमने अप्राकृतिक जीवन बना लिया है, जब वह सहज हो जाए, तो अप्राकृतिक को भी फेंक देना और सहज को भी फेंक देना; क्योंकि जब सहज पूरा होना हो, तो सहज होने का खयाल भी बाधा देता है।
■ ओशो

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