
आज का अंशदान में सिद्धार्थ सिंह कर रहा हूं जिसने अपने जीवन का लम्बा सफर काशी में बिताया है और इसे भली प्रकार समझने का प्रयास किया है आज आप से रूबरू होने का ये मौका मैं कत्तई जाया नहीं करूँगा और सीधे अपनी बात पर आऊंगा।
“जो बड़ेन को लघु कहें, नहीं रहीम घटी जाहिं. गिरधर मुरलीधर कहें, कछु दुःख मानत नाहिं.”
अपने आप को मैं जमीं से जुड़ा पता हु जब भी देखता हूँ, अपने इधर-उधर घूमते किसी मुसाफिर को जिसकी मंजिल जाया हो रही है- मैं खुद को उसके स्थान पर रख कर देखने का प्रयास करता हूँ और पाता हूँ कि उसमे वो सबकुछ है जो मंजिल पर उसकी राह देख रहा है और कहना चाहता हूँ की अपने हर कदम को इतनी मजबूती के साथ रखो की हलचल दिखाई न दे और तुम्हारी शख्सियत चट्टान की तरह दृढ दिखाई दे।
और बस चलते रहो जब तक मंजिल खुद ब खुद तुम्हे राह न दे दे यही सत्य है अर्ध नहीं सम्पूर्ण।
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