साहित्यिक झरोखा: “मृगावती” के कुतबन - Kashi Patrika

साहित्यिक झरोखा: “मृगावती” के कुतबन


शेख बूढ़न जग सांचा पीर, नाउ लेत सुध होइ सरीर। 
कुतुबन नाउं लै रे पा धरे, सुहरवरदी दुहुं जग निरमरे। 
पछिले पाप धोइ सब गए, जोऊ पुराने ओ सब नए। 
नौ के आज भएउ अवतारा.....

भारत में सूफीमत का क्रमबद्ध इतिहास 1180 ई. में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के आगमन से प्रारम्भ होता हैं। माना जाता हैं कि ख्वाजा लाहौर से दिल्ली होते हुए अजमेर आकर रहने लगे। उनके दर्शन का मुख्य आधार प्रेम होने के कारण शीघ्र ही लोक का झुकाव उनकी ओर हुआ। सूफी प्रेमाख्यान काव्य का समय 14 वीं से 18 वीं शताब्दी तक फैला हुआ है। मुल्ला दाउद के 'चंदायन' (1379 ई.) से इसकी शुरुआत मानी जाती है। इसी सूफी काव्य परंपरा में एक कवि हुए, कुतबन। इनकी एक मात्र प्रेमाख्यान काव्य रचना के विषय में हमें ज्ञात होता है 'मृगावती।' आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने मृगावती को ही प्रेमाख्यान काव्य रचना का पहला ग्रन्थ माना है।

कुतबन चिश्ती वंश के शेख बुरहान के शिष्य थे और जौनपुर के बादशाह हुसैनशाह के आश्रित थे। अत: इनका समय विक्रम सोलहवीं शताब्दी का मध्यभाग (सन् 1493) था। इन्होंने ‘मृगावती’ नाम की एक कहानी चौपाई दोहे के क्रम से सन् 1500 ई. में लिखी, जिसमें चंद्रनगर के राजा गणपतिदेव के राजकुमार और कंचनपुर के राजा रूपमुरारि की कन्या मृगावती की प्रेम कथा का वर्णन है। इस कहानी के द्वारा कवि ने प्रेममार्ग के त्याग और कष्ट का निरूपण करके साधक के भगवत्प्रेम का स्वरूप दिखाया है। बीच-बीच में सूफियों की शैली पर बड़े सुंदर रहस्यमय आध्यात्मिक आभास है।

'काशी' (वर्तमान बनारस) में हरतीरथ मुहल्ले की चौमुहानी से पूरब की ओर लगभग एक फलाँग की दूरी पर 'कुतबन शहीद' नामक एक मुहल्ला है। वहीं एक मजार है, जो कुतबन की मजार के नाम से प्रसिद्ध है। कदाचित वह इन्हीं कुतबन की कब्र है।

मृगावती मृगावती की कथा है कि कंचन नगर के राजा रूप मुरारी की बेटी मृगावती मृगी का वेश धारण कर वन में विचरण कर रही थी। उसे चंद्रगिरि के राजा गणपति देव के पुत्र ने देखा और उस पर आसक्त हो गया और उसकी खोज में योगी वेश धारण करके निकला। मार्ग में रुपमणि नामक राजकुमारी की राक्षस से रक्षा कर विवाह किया। फिर उसे छोड़ कर मृगावती की खोज में चल पड़ा। नाना कष्ट सहते हुए कंचन नगर पहुँचा और वहाँ मृगावती को राज करते पाया। वहाँ 12 वर्ष रहा। जब वह घर न लौटा तो उसे बुलाने के लिए उसके पिता ने दुत भेजा। रास्ते में वह रुपमणि से मिलता हुआ राजकुमार के पास पहुँचा और उसे लौटा लाया। अंत मे एक दिन आखेट करते हुए राजकुमार की मृत्यु हो गई और मृगावती और रुपमणि उसके साथ सती हो गई। इस कथा के आधार पर पीछे अनेक लोगों ने हिंदी और बंगला में रचनाएँ की है। 
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