'धर्म की अवधारणा' - वे सभी , जो योग्य एवं शुभ हैं धर्म हैं।... - Kashi Patrika

'धर्म की अवधारणा' - वे सभी , जो योग्य एवं शुभ हैं धर्म हैं।...

धर्म की अवधारणा


हिन्दू महान सांस्कृतिक परंपरा के अनुसार संस्कृत में धर्म शब्द के कई अर्थ हैं। जैमिनी के अनुसार - 'छोड़नेलक्षणोअर्थो धर्मः ' अनुभवी शिक्षक द्वारा प्रेरित कर्म को धर्म कहते हैं।'
 धर्म की अन्य व्याख्या , ' एवं श्रेयस्कर स एव  धर्मशब्देनोच्यते' अर्थात 'वे सभी , जो योग्य एवं शुभ हैं धर्म हैं।
'धर्म शब्द संस्कृत के 'धृ ' धातु से बना है जिसका अर्थ धारण करना होता है अर्थात 'जो हमें जीवित रहने के योग्य बनता है , धर्म है।'

 अनेक लोग धर्म को सामाजिक रूढ़ि की संज्ञा देते हैं किन्तु धर्म के सम्बन्ध में यह धारना उसकी उपयोगिता के प्रति भ्रान्ति मात्र है। 
शास्त्रों का मत है  -
'धरणात धर्ममित्याहुः धर्मय: धारयते प्रजा:' मनुष्य अतीत के अनुभव पर , भविष्य की कल्याणकारी कल्पनाओ, जिन धारणाओं द्वारा सृजन करता है , वे ही धर्म है।  तद्विषयक सफलता के साधन धर्माचार एवं साधनो को व्यवहृत करने वाला मानव समुदाय, संप्रदाय है।  

'यतोभ्युदयनि: श्रेयससिद्धि: स धर्म:' भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रवित्तियों का समन्वय ही धर्म है।  

मनीषियों द्वारा उसमे अभीष्ट परिवर्तन कर दिया जाता है ,जिससे उसकी सामाजिक उपयोगिता का हास्य नहीं होने पता।  यही परिवर्तन अनेक सम्प्रदायों का कारक होता है।  

संसार का स्वरूप विविधताओ में है किन्तु तत्व एकत्व में है।  उपासनाओं तथा देवताओ की अर्चना का अंतिम लक्ष्य एक  ब्रह्म की उपासना में ही लीन है।  

-शंभूनाथ  मानव-

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