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काशी सत्संग: खुद से करें खुद का साक्षात्कार


शरीरं स्वरूपं नवीनं कलत्रं, 
धनं मेरुतुल्यं यशश्चारु चित्रम् | 
हरेरङ्घ्रिपद्मे मनश्चेन्न लग्नं, 
तत: किं तत: किं तत: किं तत: किम् ||

भावार्थ :- शरीर चाहे कितना भी सुंदर हो, पत्नी चाहे कितनी भी मनमोहिनी हो, धन चाहे कितना भी सुमेरु पर्वत की भांति असीम हो और सारे संसार में चाहे कितना भी नाम रोशन हो चुका हो, लेकिन जब तक जीवन देने वाले श्रीहरि के चरणकमलों में मन नहीं लगा, तब तक क्या हासिल किया ! क्या पाया ! अर्थात् सब बेकार है..!! 
संतो ने कहा है कि जैसे धनवान बनने के लिए एक-एक कण का संग्रह करना पडता है, उसी प्रकार गुणवान बनने के लिए एक-एक क्षण का सदुपयोग करना पडता है। इस जीवन का धन अगले जन्म में काम नहीं आता, मगर इस जीवन का पुण्य जन्मो-जन्म तक काम आता है।
इसी प्रकार संबंधों को जोड़ना एक कला है, लेकिन संबंधों का निर्वहन एक साधना है, फिर चाहे वह धन-संपदा के प्रति आसक्ति हो अथवा ईश्वर भक्ति! जितना दोगे, उतना ही भोगोगे। जीवन में हम कितने सही और कितने गलत हैं, यह सिर्फ दो ही लोग जानते हैं, पहला "ईश्वर"और दूसरा अपनी "अंतरआत्मा" और हैरानी की बात है कि दोनों नजर नहीं आते!! इसीलिए आत्मा-परमात्मा के मिलन की असली कुंजी है खुद से खुद का साक्षात्कार। 
ऊं तत्सत... 
         

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