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तीन लोक नौ खंड में, गुरु से बड़ा न कोय


गुरु पूर्णिमा विशेष॥
तीन लोक नौ खंड में, गुरु से बड़ा न कोय्।
करता जो न करि सकै, गुरु के करे सों होय।।
भावार्थ:-कहने तात्पर्य यह है कि तीनों लोकों नवो खंड में गुरू से बड़ा कोई नहीं है। विधाता, विधि लिखित विधान से बंधे होने के कारण हमारे प्रारब्ध को नहीं मिटा पाते किंतु समर्थ सद्गुरू प्रारब्ध के कर्मफल को सुकृति में बदल देते हैं।

गुरु पारस को अंतरो, जानत हैं सब संत। 
वह लोहा कंचन करे, यह करि देय महंत।।
भावार्थ:- गुरु और पारस (पत्थर) के अंतर को ज्ञानी (गुणी-जन) जानते समझते हैं। विदित है कि, पारस के स्पर्श से लोहा, सोना बन जाता है। गुरु की महिमा उससे भी अधिक बतलायी गयी है क्योंकि गुरु ज्ञान की धार चढा़ मुर्ख को भी महंत बना देते हैं।

गुरु कुम्भार औ शिष्य कुंभ है, गढी़-गढी़ काढे़ खोट।
अंतर हाथ सहारा देई, बाहर मारैईं चोट।।
भावार्थ:- कहने का तात्पर्य, ऊपर से कठोर से दिखने वाले गुरु कुम्हार की तरह होते हैं, और शिष्य मिट्टी के लोथडे़ के समान।हममे से बहुतों ने देखा होगा कुंभार मिट्टी को कोई आकार देने के पूर्व उसे कूंट-पीसकर महीन करता है तत्पश्चात उसमें पानी मिला रगढ़ रगढ़ कर लोथडे़ बनाता है, उसके बाद उसे चाक चढा़, चाक चलाते रहता है और उस मिट्टी के लोथडे़ को पीटते रहता है किंतु इस सारी क्रिया के दौरान न सूखी मिट्टी को बिखरने देता है और ना ही गिली मिट्टी को गिरने देता है। चाक चढा़ घुमाने के दौरान भी अपनी हाथों का सहारा दिए रहता है, यहाँ तक की जब वह चाक चढ़ी गीली मिट्टी को बाहर से पीटता है तब भी एक हाथ अंदर से लगाए रहता है।उसी तरह गुरु भी आँखें तरेर शिष्य को अनुशासित रखते हुए मुर्ख को भी महंत बना देते हैं।

गुरु बिनु भवनिधि तरई न कोई।
जो बिरंचि संकर सम होई।।
भावार्थ:- गुरु ज्ञान बिना भवसागर तरना (पार कर पाना) मुश्किल की ही नहीं बल्कि असंभव है। व्यक्ति भले ही ब्रह्म-शिव समान ज्ञानी हो जाय,समस्त वेद, पुराण, उपनिषद कंठस्थ कर वाक सिद्धि, भविष्य द्रष्टा बन जाय तब भी वह वह स्वयं अंधकार में ही जीता है। गुरु वह लौ, हैं जो चहुँ दिश उजियारा कर देते हैं। गुरु उस चंदन की भाँति होते हैं जिसकी सानिध्य में दूसरे वृक्ष उस चंदन की मानिंद महकने लगते हैं। स्वयं शीतलता की अनुभूति करने लगते हैं। सो हे मना हम भी गुरु की चरण शरण गह ज्ञान,भक्ति,शक्ति और शांति को आत्मसात करें।

तीरथ गए एक फल, संत मिले फल चारु।
सद्गुरू मिले अनंत फल, कहैं कबीर विचार।।
भावार्थ:-तीर्थ के दर्शन, स्नान और पूजन से उस तीर्थ की महिमा व महत्ता के अनुरूप ही फल मिलेगा  किंतु की शरण गहे अनंत गुना फल है।

गरु गूंगे, गुरु बावरे (पागल) गुरु के रहिये दास।
गुरु जौ भेजैं नरक को, स्वर्ग की रखिये आस।।
भावार्थ:- गुरु गूंगे हों बावरे (पागल) हीं क्यों न हों, सदा गुरु की दासता में रहना चाहिए। गुरु यदि शिष्य को नरक में भेज रहें हों, तब भी शिष्य को उसे स्वर्ग समान जान-मान सहर्ष स्वीकार करना चाहिए।
काशी पत्रिका

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