फूलों की तरह लब खोल कभी,
खुशबू की जबाँ में बोल कभी।
अल्फाज परखता रहता है,
आवाज हमारी तोल कभी।
अनमोल नहीं लेकिन फिर भी,
पूछ तो मुफ्त का मोल कभी।
खिड़की में कटी हैं सब रातें,
कुछ चौरस थीं कुछ गोल कभी।
ये दिल भी दोस्त जमीं की तरह,
हो जाता है डाँवा-डोल कभी।
■ गुलजार
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