काशी सत्संग: "शिल्पकार गृहिणी" - Kashi Patrika

काशी सत्संग: "शिल्पकार गृहिणी"


असज्जनः सज्जनसङ्गिसङ्गात्करोति दुःसाध्यमपि साध्यं। 
पुष्पाश्रयाच्छंभुशिरोSधिरूढा पिपीलिका चुम्बति चन्द्रबिम्बम्।।
भावार्थ : साधारण या दुष्ट व्यक्ति भी सज्जन व्यक्तियों के साथ प्रयत्न पूर्वक रह कर अत्यन्त कठिन या असंभव कार्य को भी वैसे ही सम्पन्न कर लेते हैं, जैसे कि एक छोटी सी चींटी भी एक पुष्प का आश्रय लेकर भगवान् शिव (की मूर्ति) के मस्तक पर स्थित चन्द्रबिम्ब को चूमने में समर्थ हो जाती है। 

एक गांव में एक जमींदार था। उसके कई नौकरों में जग्गू भी था। गांव से लगी बस्ती में, बाकी मजदूरों के साथ जग्गू भी अपने पांच लड़कों के साथ रहता था। जग्गू की पत्नी बहुत पहले गुजर गई थी। एक झोंपड़े में वह बच्चों को पाल रहा था। बच्चे बड़े होते गए और जमींदार के घर नौकरी में लगते गए।
सब मजदूरों को शाम को मजूरी मिलती। जग्गू और उसके लड़के चना और गुड़ लेते थे। चना भून कर गुड़ के साथ खा लेते थे। बस्ती वालों ने जग्गू को बड़े लड़के की शादी कर देने की सलाह दी। उसकी शादी हो गई और कुछ दिन बाद गौना भी आ गया। नई बहू को देखने के लिए भीड़ जमा हुई। सबके चले जाने के बाद जब बहू ने घूंघट उठाकर अपनी ससुराल को देखा, तो उसका कलेजा मुंह को आ गया। जर्जर सी झोंपड़ी, खूंटी पर टंगी कुछ पोटलियां और झोंपड़ी के बाहर बने छह चूल्हे (जग्गू और उसके सभी बच्चे अलग अलग चना भूनते थे)। बहू का मन हुआ कि उठे और सरपट अपने गांव भाग चले, पर अब यहीं उसकी जिंदगी थी। थोड़ी देर वह रोती रही, फिर मन को शांत किया। पड़ोस में रहने वाली बूढ़ी अम्मा के घर से जरूरी सामान लाकर घर को साफ किया। उसके बाद बहू ने एक चूल्हा छोड़ बाकी फोड़ दिए। फिर उसने सभी पोटलियों के चने एक साथ किए और अम्मा के घर जाकर चना पीसा। अम्मा ने उसे साग और चटनी भी दी। वापस आकर बहू ने चने के आटे की रोटियां बनाई और इन्तजार करने लगी।
जग्गू और उसके लड़के जब लौटे, तो एक ही चूल्हा देख भड़क गए। चिल्लाने लगे कि इसने तो आते ही सत्यानाश कर दिया। अपने आदमी का छोड़ बाकी सबका चूल्हा फोड़ दिया। झगड़े की आवाज सुन बहू झोंपड़ी से  निकली। बोली–आप लोग हाथ-मुंह धोकर बैठिये, मैं खाना निकालती हूं। सब अचकचा गए! हाथ-मुंह धोकर बैठे। बहू ने पत्तल पर खाना परोसा–रोटी,साग, चटनी। मुद्दत बाद उन्हें ऐसा खाना मिला था। सुबह काम पर जाते समय बहू ने उन्हें एक-एक रोटी और गुड़ दिया।
चलते समय जग्गू से उसने पूछा– बाबूजी, मालिक आप लोगों को चना और गुड़ ही देता है क्या? जग्गू ने बताया कि मिलता तो सभी अन्न है, पर वे चना-गुड़ ही लेते हैं। आसान रहता है खाने में। बहू ने समझाया कि सब अलग-अलग प्रकार का अनाज लिया करें। देवर ने बताया कि उसका काम लकड़ी चीरना है। बहू ने उसे घर के ईंधन के लिए भी कुछ लकड़ी लाने को कहा। बहू सबकी मजदूरी के अनाज से एक-एक मुठ्ठी अन्न अलग रखती। उससे बनिये की दुकान से बाकी जरूरत की चीजें लाती। जग्गू की गृहस्थी धड़ल्ले से चल पड़ी।
एक दिन सभी भाइयों और बाप ने तालाब की मिट्टी से झोंपड़ी के आगे बाड़ बनाया। बहू के गुण गांव में चर्चित होने लगे। जमींदार तक यह बात पंहुची। वह कभी-कभी बस्ती में आया करता था। आज वह जग्गू के घर उसकी बहू को आशीर्वाद देने आया। बहू ने पैर छू प्रणाम किया, तो जमींदार ने उसे एक हार दिया। हार माथे से लगा बहू ने कहा कि मालिक यह हमारे किस काम आएगा। इससे अच्छा होता कि मालिक हमें चार लाठी जमीन देते झोंपड़ी के दायें-बायें, तो एक कोठरी बन जाती।
बहू की चतुराई पर जमींदार हंस पड़ा। बोला–ठीक है, जमीन तो जग्गू को मिलेगी ही। यह हार तो तुम्हारा हुआ। औरत चाहे घर को स्वर्ग बना दे, चाहे नर्क! देश, समाज, और घर को औरत ही गढ़ती है।
ऊं तत्सत...

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