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काशी सत्संग: वास्तविकता या भ्रम


तुलसीदास जी ने बड़ी अच्छी बात कही है।
देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर।
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि॥
अर्थात्, गोस्वामीजी कहते हैं कि सुंदर वेष देखकर न केवल मूर्ख अपितु चतुर मनुष्य भी धोखा खा जाते हैं। सुंदर मोर को ही देख लो, उसका वचन तो अमृत के समान है, लेकिन आहार सांप है।

एक बार गुरु जी ने अपने शिष्यों को ज्ञान देने के उद्देश्य से एक प्रश्न पूछा। उन्होंने शिष्यों से कहा, मान लीजिए कि आप दूध का गिलास हाथ में लिए खड़े हैं। इसी दौरान अचानक कोई आपको धक्का दे देता है, तो क्या होगा? शिष्य बोला कि गिलास में से दूध छलक जाएगा। गुरु जी ने पूछा कि दूध क्यों छलका? तो एक शिष्य बोला, क्योंकि किसी ने धक्का दिया। इसके चलते गिलास में दूध छलक गया।
यह सुनकर गुरु जी ने कहा तुम्हारा उत्तर सही नहीँ है। यह कहकर उन्होंने फिर से प्रश्न दोहराया कि दूध क्यों छलका? इस बार सभी शिष्य एक-दूसरे का मुंह देखने लगे। यह देख कर गुरु जी ने कहा कि सही उत्तर ये है कि आपके गिलास में दूध था, इसलिए दूध छलका। क्योंकि जो आपके पास है, वही छलकेगा। गुरु जी ने विस्तार पूर्वक समझाते हुए कहा कि इसी तरह जीवन में जब हमें धक्के लगते हैं, तो व्यवहार से हमारी वास्तविकता ही छलकती है।
हमारे पास जो होता है, वही छलकता है, जैसे धैर्य, मौन, कृतज्ञता, स्वाभिमान, निश्चिंतता, मानवता या फिर क्रोध, कड़वाहट, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा आदि। मित्रों, यानी मनुष्य का वास्तविक स्वभाव उस समय सामने आता है, जब उसे जीवन में धक्का लगता है।
ऊं तत्सत...

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