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सब उस गोविंद का खेल है

जब से यह अहसास जागा है कि आपदा हो, संपदा हो, दैवयोग से अपने समय पर आती है। सब उस गोविंद का खेल है। यह जानकर मैं थिर हो गया हूं। अब शोक नहीं करता, अब चिंता नहीं करता...

​एक समुराई है। अपनी पत्नी को गौना कराकर ले जा रहा है अपने गांव। रास्ते में तूफान आता है। सब लोग चिल्ला रहे हैं, रो रहे हैं। उसकी पत्नी देखती है कि उसका दूल्हा समुराई तो शांत है, थिर है। कौलर पकड़कर हिलाती है। कहती है-‘तुम कैसे व्यक्ति हो? तूफान आया है। कौन-सी सांस आखिरी सांस हो जाए। कौन-सी धड़कन आखिरी धड़कन हो जाए। फिर भी तुम शांत हो, थिर हो। समुराई तलवार निकाल लेता है अपनी म्यान से। उसकी गर्दन पर रख देता है। थोड़ी देर तो वह विचलित होती है, फिर हंसने लगती है। समुराई कहता है कि तुझे मालूम है कि तलवार की धार कितनी तेज है। फिर भी तू हंसती है। जरा सी मैंने दबाई और तेरी गर्दन गई। तब भी तू हंसती है। उसकी दुल्हन कहती है-‘हँसूं नहीं, तो क्या करूं? माना कि तलवार की धार बड़ी तेज है। लेकिन जब तक यह तलवार मेरे दूल्हे के हाथों में है, तब तक इससे मुझे डरने की क्या जरूरत है।
जब शब्द से जुड़ जाते हो, जब ओंकार से जुड़ जाते हो, तो गोविंद से जुड़ जाते हो। तब तुम सही मायने में थिर हो जाते हो ‘सब्दै भागा शोक। फिर काहे की चिंता? फिर काहे का शोक? कहते है अष्टावक्र जनक से-

‘आपद: संपद: काले दैवादैवेति निश्चयी।
तृप्त: स्वस्थेन्द्रियों नित्यम न शोचति न कांक्षति।’
यह मुझे पता है। आपदा हो, संपदा हो, दैवयोग से अपने समय पर आती है। सब उस गोविंद का खेल है। यह जानकर मैं थिर हो गया हूं। अब शोक नहीं करता, अब चिंता नहीं करता।
‘सब्दै ही मुक्ता भया, सब्दै समझै प्राण।’
इस शब्द से जुड़कर, इस ओंकार से जुड़कर ही मुक्ति मिलती है। तब तक मुक्ति की केवल बाते हैं। रज्जब साहब दादू साहब के शिष्य हैं। कहते हैं-
‘नाम बिना नाहीं निसतारा कबहूं न पहुंचे पार।’
बिना नाम के मुक्ति सिंभव नहीं है। ओंकार मुक्ति कि द्वार है।

‘सब्दै ही मुक्ति भया, सब्दै समझै प्राण।’
शब्द से ही जीवन के रहस्य समझ में आते हैं।

‘सब्दै ही सूझे सबै, सब्दै सुरझै जाण।।’
शब्द को जान लो, तो जीवन का सारा रहस्य समझ में आ जाता है। शब्द को जान लो, तो जीवन की सारी समस्यायें सुलझ जाती हैं। शब्द ही सारी समस्याओं का समाधान है। यही सहज योग है।
■ ओशो 

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