काशी सत्संग: कर्म फल से मुक्ति नहीं - Kashi Patrika

काशी सत्संग: कर्म फल से मुक्ति नहीं


एक समय कांचीपुर नामक गांव में वज्र नाम का एक चोर रहता था। चोर नाम के भांति ही वज्र ह्रदय का था। उसे जिसका जो मिलता चुरा लेता। उसे तनिक भी दया नहीं आती थी कि उस सामान के स्वामी को कितना कष्ट होगा!
वज्र चुराए हुए धन को सिपाहियों के भय से जंगल में जमीन के अंदर छुपा देता था! एक रात वीरदत्त नाम के लकड़हारे ने ये घटना देख ली। और चोर के जाने के पश्चात जमीन खोद कर उसके चुराए हुए धन का दसवां हिस्सा निकाल लिया और गड्ढे को पहले की भांति ढक दिया। लकड़हारा इतनी चालाकी से सामान निकालता की चोर को इस चोरी का पता ही नहीं चल पाता था।
एक दिन लकड़हारा अपनी पत्नी को धन देते हुए बोला कि तुम रोज धन मांगा करती थी, लो आज पर्याप्त धन इक्कठा हो गया है। उसकी पत्नी को धन के बारे में पता चला तो, उसने कहा, “जो धन अपने परिश्रम से उपार्जित न किया गया हो, वह स्थाई नहीं होता है। इसी लिए इस धन को जनता की भलाई में लगा दीजिए।”
वीरदत्त को भी ये बात जंच गई। उसने उस धन से एक बहुत बड़ा तालाब खुदवाया, जिसका पानी कभी भी नहीं सूखता था। लेकिन इसमें सीढ़िया लगनी रह गई थी और सारे पैसे समाप्त हो गए थे। तो वह फिर से छिपकर चोर का अनुसरण करने लगा कि वह धन कहा छुपाता है। इसके बाद फिर उससे दसवां हिस्सा निकाल कर तालाब का काम पूरा करवाया! वीरदत्त ने चोर के धन से भगवान शंकर और भगवान विष्णु के भव्य मंदिर बनवाए। बंजर जमीन को खेती योग्य बनवाकर गरीबों में वितरित कर दिया।
गरीबों ने उसकी सेवा से प्रसन्न होकर उसका नाम द्विजवर्मा रखा। जब द्विजवर्मा की मृत्यु हुई, तब एक ओर से यमदूत आए और एक ओर से भगवान शंकर के गण आए। उनमें आपस में विवाद होने लगा। इसी बीच वहां नारद जी पधारे। नारद जी ने उनको समझाया, आप विवाद न करें इस लकड़हारे ने चोरी के धन से परोपकार के कर्म किए हैं, इसलिए जब तक यह कुमार्ग से अर्जित धन का प्रायश्चित नहीं कर लेता, तब तक वायु रूप में अंतरिक्ष में विचरण करता रहेगा।
नारद जी की बात सुनकर सभी दूत वापस लौट गए तथा द्विजवर्मा बारह वर्षों तक प्रेत बनकर घूमता रहा।
नारद जी ने लकड़हारे की पत्नी से कहा, तुम ने अपने पति को सदमार्ग दिखाया है तुम ब्रह्मलोक जाओगी। किंतु, लकड़हारे की पत्नी अपने पति के दुःख से दुखी थी। वह देवर्षि से बोली, जब तक मेरे पति को देह नहीं मिलती, तब तक मैं यही रहूंगी। जो गति मेरे पति की हुई वही गति मैं भी चाहती हूं! उसकी बात सुनकर देवर्षि बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा कि तुम अपने पति की मुक्ति के लिए शिव की आराधना करो। द्विजवर्मा की पत्नी ने अपने पति की मुक्ति के लिए अथक मेहनत से भगवान शिव की आराधना की। इससे सारा पाप धुल गया और दोनों पति-पत्नी को उत्तम लोक मिला। इस पौराणिक कथा का निष्कर्ष यही है की कोई भला काम करने का अच्छा फल जरूर मिलता है,लेकिन कोई भला काम करने के लिए कभी किसी गलत काम का सहारा नहीं लेना चाहिए। अन्यथा उस गलत काम का भी दंड जिंदा रहते या मरने के बाद जरूर भुगतना पड़ता है!
ऊं तत्सत...

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