मृत्यु: भय या सत्य - Kashi Patrika

मृत्यु: भय या सत्य


मैं देखता हूं कि अधिक लोग वस्त्र ही वस्त्र हैं! उनमें वस्त्रों के अतिरिक्त जैसा कुछ भी नहीं है। क्योंकि, जिसको स्वयं का ही बोध न हो, उसका होना न-होने के ही बराबर है...

बात यह भी है कि जो मात्र वस्त्र ही वस्त्र हैं, उन्हें क्या मैं जीवित कहूं! नहीं मित्र, वे मृत हैं और उनके वस्त्र उनकी कब्रें हैं। एक अत्यंत सीधे और सरल व्यक्ति ने किसी साधु से पूछा, ''मृत्यु क्या है? और मैं कैसे जानूंगा कि मैं मर गया हूं?'' उस साधु ने कहा, ''मित्र जब तेरे वस्त्र जीर्ण-शीर्ण हो जावें, तो समझना कि मृत्यु आ गई है।'' उस दिन से वह व्यक्ति जो वस्त्र पहनता था, उनकी देखभाल में ही लगा रहने लगा। उसने नहाना धोना भी बंद कर दिया, क्योंकि बार-बार उन वस्त्रों को निकालने और धोना उन्हें अपने ही हाथों क्षण करना था। उसकी चिंता ठीक ही थी, क्योंकि वस्त्र ही उसका जीवन जो थे!
लेकिन, वस्त्र तो वस्त्र हैं और एक दिन वे जीर्ण-शीर्ण हो ही गए। उन्हें नष्ट हुआ देख वह व्यक्ति असहाय रोने लगा, क्योंकि उसने जाना कि उसकी मृत्यु हो गई है! उसे रोते देख लोगों ने पूछा कि क्या हुआ है! तो वह बोला, ''मैं मर गया हूं, क्योंकि मेरे वस्त्र फट गए हैं।''
यह घटना कितनी असंभव और काल्पनिक मालूम होती है! लेकिन, मैं पूछता हूं कि क्या सभी मनुष्य ऐसे ही नहीं हैं? और क्या वे वस्त्रों के नष्ट होने को ही स्वयं का नष्ट होना नहीं समझ लेते हैं?
शरीर वस्त्रों के अतिरिक्त और क्या हैं! और, जो स्वयं को शरीर ही समझ लेते हैं, वह वस्त्रों को ही जीवन समझ लेते हैं। फिर, इन वस्त्रों का फट जाना ही जीवन का अंत मालूम होता है। जबकि, जो जीवन है- उसका न आदि है न अंत है। शरीर का जन्म है और शरीर की ही मृत्यु है। वह जो भीतर है, शरीर नहीं है। वह जीवन है। उसे जो नहीं जानता, वह जीवन में भी मृत्यु में है। और, जो उसे जान लेता है, वह मृत्यु में भी जीवन को पाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

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