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काशी सत्संग: पार्वती के शिव


एक बार भगवान शंकर पार्वती जी एवं नारदजी के साथ भ्रमण हेतु चल दिए। वे चलते-चलते एक गांव पहुंचे। गांव में वे तीनों जहां रुके उससे कुछ दूरी पर एक नदी थी। पार्वतीजी भगवान शंकर से आज्ञा लेकर नदी में स्नान करने चली गईं। स्नान करने के पश्चात् बालू का शिवलिंग बनाकर पूजन किया। भोग लगाया तथा प्रदक्षिणा करके दो कणों का प्रसाद खाकर मस्तक पर टीका लगाया। उसी समय उस पार्थिव लिंग से शिवजी प्रकट हुए तथा पार्वती को वरदान दिया।
स्नान-पूजन करते-करते पार्वतीजी को भगवान शंकर व नारदजी के पास लौटने में विलम्ब हो गया। शिवजी ने विलम्ब से आने का कारण पूछा, तो इस पर पार्वतीजी बोलीं, “मेरे भाई-भाभी नदी किनारे मिल गए थे। उन्होंने मुझसे दूध- भात खाने तथा ठहरने का आग्रह किया। इसी कारण आने में देर हो गई।” ऐसा जानकर अन्तर्यामी भगवान शंकर भी दूध-भात खाने के लालच में नदी तट की ओर चल पड़े। पार्वतीजी ने मौन भाव से भगवान शिवजी का ही ध्यान करके प्रार्थना की, “भगवान आप अपनी इस अनन्य दासी की लाज रखिए।”
प्रार्थना करती हुई पार्वतीजी उनके पीछे-पीछे चलने लगीं। तभी दूर नदी तट पर उन्हें माया का महल दिखाई दिया। जब वे महल के अन्दर पहुंचे, वहां शिवजी के साले तथा सहलज ने शिव-पार्वती का स्वागत किया। दो दिन वहां रहने के बाद पार्वती ने शिवजी से वापस चलने के लिए कहा, तो भगवान शिव चलने को तैयार न हुए। तब पार्वती जी रूठकर अकेली ही चल पड़ीं। ऐसी परिस्थिति में भगवान शिव को भी पार्वती के साथ चलना पड़ा। नारदजी भी साथ चल दिए।
चलते-चलते भगवान शंकर बोले, “ मैं तुम्हारे मायके में अपनी माला भूल आया। माला लाने के लिए पार्वतीजी जाने लगीं, तो भगवान ने नारदजी से माला वापस लाने का अनुरोध किया। वहां पहुंचने पर नारदजी को कोई महल नजर नहीं आया। वहां दूर-दूर तक जंगल ही जंगल था। सहसा बिजली कौंधी और नारदजी को शिवजी की माला एक पेड़ पर टंगी दिखाई दी। नारदजी ने माला उतारी और शिवजी के पास पहुंच कर यात्रा का वृतांत बताने लगे। शिवजी ने हंसकर कहा- सब पार्वती की ही लीला है। इस पर पार्वती जी बोली- मैं किस योग्य हूं। यह सब तो आपकी ही कृपा है। ऐसा जानकर महर्षि नारदजी माता पार्वती तथा उनके पतिव्रत प्रभाव से उत्पन्न घटना की प्रशंसा करते हुए भक्त और प्रभु के अटूट प्रेम को याद कर पुलकित हो उठे।
ऊं तत्सत...

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