श्रीकृष्ण ने गीता में "मैं" का प्रयोग किया है, लेकिन उनके और तुम्हारे "मैं" के प्रयोग में बहुत अंतर है। जब तुम "मैं" कहते हो, तब उसका अर्थ है वह जो शरीर में कैद है, लेकिन कृष्ण का "मैं" पूरे ब्रह्माण्ड में व्यापक है...
कृष्ण कोई साधक नहीं हैं। उन्हें साधक कह कर संबोधित करना गलत होगा। वे एक सिद्ध हैं, जीवन की कला के एक पारंगत और निपुण कलाकार। और जो भी वह इस सिद्धावस्था में, मन की चरम अवस्था में कहते हैं, तुम्हें अहंकार लग सकता है, पर ऐसा है नहीं। कठिनाई यह है कि कृष्ण को उसी भाषाई "मैं" का प्रयोग करना पड़ता है जिसका तुम करते हो। लेकिन उनके "मैं" के प्रयोग में और तुम्हारे "मैं" के प्रयोग में बहुत अंतर है। जब तुम "मैं" का प्रयोग करते हो, तब उस का अर्थ है वह जो शरीर में कैद है लेकिन जब कृष्ण "मैं" कहते हैं तब उसका अर्थ है वह जो पूरे ब्रह्माण्ड में व्यापक है। इसलिए उनमे यह कहने का साहस है--"सब छोड़ कर मेरी शरण में आ।" यदि यह तुम्हारा "मैं" होता--शरीर का कैदी--तब उनके लिए यह कह पाना असंभव होता। और यदि कृष्ण का "मैं" तुम्हारी तरह ही क्षुद्र होता तो अर्जुन को कष्ट पहुंचाता। अर्जुन तुरंत उसका प्रत्युत्तर देते, कि "आप यह क्या कह रहें हैं? मैं क्यूँ आप के आगे समर्पण करूँ? अर्जुन को बहुत कष्ट हुआ होता, पर ऐसा नहीं हुआ।
जब कोई व्यक्ति किसी से अहंकार की भाषा में बोलता है तब दूसरे के भीतर भी तुरंत अहंकार की प्रतिक्रिया होती है। जब तुम अहंकार के "मैं"की भाषा में कुछ बोलते हो, तब दूसरा भी तुरंत वही भाषा बोलने लगता है। हम एक-दूसरे के शब्दों के पीछे छिपें अर्थों को समझने में सक्षम हैं और तेजी से प्रतिक्रिया दे देतें हैं।
परंतु कृष्ण का "मैं" अहंकार के सभी चिन्हों से मुक्त है, और इसी कारण से वे अर्जुन को एक निर्दोष समर्पण के लिएपुकार सके। यहाँ "मेरे प्रति समर्पण" का वास्तव में अर्थ है "पूर्ण के प्रति समर्पण, वह मौलिक और रहस्यमय ऊर्जा जो ब्रह्माण्ड में व्याप्त है, उसके प्रति समर्पण।"
निर-अहंकार बुद्ध और महावीर में भी आया है, परन्तु यह उनमे बहुत लंबे संघर्ष और परिश्रम के बाद आया है। किन्तु संभव है कि उनके बहुत से अनुयाइयों में ना आए, क्योंकि उनके मार्ग पर यह सबसे अंत में आने वालीचीज़ है। तो अनुयायी उस तक आ भी सकतें हैं और नहीं भी। किन्तु कृष्ण के साथ निर-अहंकार पहले आता है। वे वहा प्रारंभ होते हैं जहां बुद्ध और महावीर समाप्त होते हैं । तो जो भी कृष्ण के साथ होने का निर्णय लेता है, उसे इसे बिल्कुल प्रारंभ से रखना होगा। यदि वह असफल होता है, तो उसका कृष्ण के साथ जाने का कोई प्रश्न नही उठता।
महावीर के सान्निघ्य में तुम अपने "अहम्" को पकड़े बहुत दूर तक चल सकते हो, परंतु कृष्ण के साथ तुम्हे अपना "अहम्" पहले चरणमें गिराना होगा, अन्यथा तुम उनके साथ नहीं जा सकोगे। तुम्हारा अहम महावीर के साथ तो कुछ स्थान पा सकता है, परंतु कृष्ण के साथ नहीं। कृष्ण के साथ प्रथम चरण ही अंतिम है; महावीर और बुद्ध के साथ अंतिम चरण ही प्रथम है। और तुम्हारे लिए इस अंतर को ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह एक बहुत बड़ा अंतर है, और बहुत आधारभूत भी।
■ ओशो
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