प्रकृति में जो जैसा है, वैसे ही आनंदमय है। स्वयं के प्रति स्वीकारोत्ति से भरा है, लेकिन मनुष्य को कुछ बनना है। वह जैसा है, स्वयं को ही स्वीकार नहीं है और यही उसके दुख का, भटकाव का कारण है...
एक झेन फकीर के पास सुबह-सुबह एक आदमी आया और कहने लगा कि आप इतने शांत क्यों हैं? और मैं इतना अशांत क्यों हूं? उस फकीर ने कहा कि बस मैं शांत हूं और तुम अशांत हो। तुम अशांत हो, बात खत्म हो गई। अब इसमें कुछ और आगे कहने को नहीं है। उस आदमी ने कहा कि नहीं, लेकिन आप शांत कैसे हुए? फकीर ने पूछा कि मैं तुमसे पूछना चाहूंगा कि तुम अशांत कैसे होते हो?
वह आदमी कहने लगा, अशांति आ जाती है। फकीर ने कहा, “बस ऐसा ही हुआ है, शांति आ गई। और मेरा कोई गौरव नहीं है। जब तक अशांति आती थी, आती थी। मैं कुछ भी कर न सका। और जब शांति आ गई, तो अब मैं अगर अशांति लाना चाहूं तो उतना ही कर पाता हूं कि अब कुछ नहीं कर पाता हूं।”
आदमी ने कहा, “नहीं, लेकिन मुझे भी रास्ता बताएं, शांत होने का।” फकीर बोले, “मैं तो एक ही रास्ता जानता हूं कि तुम यह भ्रम छोड़ दो कि तुम कुछ कर सकते हो। अशांत हो तो अशांत हो जाओ। जानो कि अशांत हूं मेरे हाथ में नहीं, और तब तुम पाओगे कि पीछे से शांति आने लगी। शांत होने की कोशिश मत करो। जो लोग भी कोशिश करते हैं और अशांत हो जाते हैं। अशांत तो होते ही हैं, अब यह शांत होने की कोशिश और नई अशांति को जन्म दे जाती है।”
पर उस आदमी ने कहा कि नहीं, मुझे बात कुछ जमती नहीं मुझे शांत होना है। फकीर ने कहा कि तुम अब ‛अशांत’ रहोगे, क्योंकि तुम्हें कुछ होना है। तुम छोड़ नहीं सकते परमात्मा पर। जबकि सब उस पर है। तुम्हारे हाथ में कुछ है नहीं। जिस दिन से हम राजी हो गए, जो था उसी के लिए, उसी दिन से हम शांत हुए। जब तक हम कुछ होना चाहते थे, तब तक हम कुछ हो न सके।
पर नहीं, वह आदमी नहीं माना। उसने कहा कि तुम्हारी शांति में ईर्ष्या पैदा होती है। और हम ऐसे मानकर चले न जाएंगे। तब उस फकीर ने कहा, रुको। जब कोई न रहे यहां तब पूछ लेना। फिर दिन में कई मौके आए, कोई न था। उस आदमी ने फिर कहा कि अब कुछ बता दें, अब कोई भी नहीं है। फकीर ने होंठ पर उंगली रखी और कहा कि चुप। आदमी बड़ा परेशान हुआ। उसने कहा कि जब लोग आ जाते हैं तब मैं पूछता हूं तो आप कहते हैं, जब कोई न रहे। और जब कोई नहीं रहता है और मैं पूछता हूं, तो आप कहते हैं, चुप! यह हल कैसे होगा?
फिर सांझ हो गई, सूरज ढल गया, सब लोग चले गए। झोपड़ा खाली हो गया। उसने कहा कि अब तो बताएं! तो फकीर ने कहा, बाहर आ। बाहर गए, पूर्णिमा का चांद निकला था। फकीर ने कहा, देखता है ये पौधे? सामने ही छोटे-छोटे पौधे लगे थे। उसने कहा, देखता हूं। फकीर ने कहा, देखता है वे दूर खड़े वृक्ष आकाश को छूते? उसने कहा, देखता हूं। उस फकीर ने कहा, “वे बड़े हैं और ये छोटे हैं। और झगड़ा कुछ भी नहीं। इनमें मैंने कभी विवाद नहीं सुना। इस छोटे पौधे ने कभी बड़े पौधे से नहीं पूछा कि तू बड़ा क्यों है? छोटा अपने छोटे होने में शांत है। बड़े ने कभी छोटे से नहीं पूछा कि तू छोटा क्यों है? बड़े की अपनी मुसीबतें हैं। जब तूफान आते हैं, तब पता चलता है। छोटे की अपनी तकलीफें हैं। पर छोटा छोटा होने को राजी है, बड़ा बड़ा होने को राजी है। और उन दोनों के बीच मैंने कभी संवाद नहीं सुना। और मैंने दोनों को शांत पाया है। तू भी कृपा कर और मुझे छोड़। मैं जैसा हूं वैसा हूं। तू जैसा है वैसा है।”
पर वह आदमी कैसे माने! हम भी कैसे मानें! मन करता है कुछ होने को। हमने मान रखा है कि हम कुछ कर सकते हैं। ईशावास्य कहता है कुछ नहीं कर सकते। कर्ता नहीं बन सकते।
■ ओशो
एक झेन फकीर के पास सुबह-सुबह एक आदमी आया और कहने लगा कि आप इतने शांत क्यों हैं? और मैं इतना अशांत क्यों हूं? उस फकीर ने कहा कि बस मैं शांत हूं और तुम अशांत हो। तुम अशांत हो, बात खत्म हो गई। अब इसमें कुछ और आगे कहने को नहीं है। उस आदमी ने कहा कि नहीं, लेकिन आप शांत कैसे हुए? फकीर ने पूछा कि मैं तुमसे पूछना चाहूंगा कि तुम अशांत कैसे होते हो?
वह आदमी कहने लगा, अशांति आ जाती है। फकीर ने कहा, “बस ऐसा ही हुआ है, शांति आ गई। और मेरा कोई गौरव नहीं है। जब तक अशांति आती थी, आती थी। मैं कुछ भी कर न सका। और जब शांति आ गई, तो अब मैं अगर अशांति लाना चाहूं तो उतना ही कर पाता हूं कि अब कुछ नहीं कर पाता हूं।”
आदमी ने कहा, “नहीं, लेकिन मुझे भी रास्ता बताएं, शांत होने का।” फकीर बोले, “मैं तो एक ही रास्ता जानता हूं कि तुम यह भ्रम छोड़ दो कि तुम कुछ कर सकते हो। अशांत हो तो अशांत हो जाओ। जानो कि अशांत हूं मेरे हाथ में नहीं, और तब तुम पाओगे कि पीछे से शांति आने लगी। शांत होने की कोशिश मत करो। जो लोग भी कोशिश करते हैं और अशांत हो जाते हैं। अशांत तो होते ही हैं, अब यह शांत होने की कोशिश और नई अशांति को जन्म दे जाती है।”
पर उस आदमी ने कहा कि नहीं, मुझे बात कुछ जमती नहीं मुझे शांत होना है। फकीर ने कहा कि तुम अब ‛अशांत’ रहोगे, क्योंकि तुम्हें कुछ होना है। तुम छोड़ नहीं सकते परमात्मा पर। जबकि सब उस पर है। तुम्हारे हाथ में कुछ है नहीं। जिस दिन से हम राजी हो गए, जो था उसी के लिए, उसी दिन से हम शांत हुए। जब तक हम कुछ होना चाहते थे, तब तक हम कुछ हो न सके।
पर नहीं, वह आदमी नहीं माना। उसने कहा कि तुम्हारी शांति में ईर्ष्या पैदा होती है। और हम ऐसे मानकर चले न जाएंगे। तब उस फकीर ने कहा, रुको। जब कोई न रहे यहां तब पूछ लेना। फिर दिन में कई मौके आए, कोई न था। उस आदमी ने फिर कहा कि अब कुछ बता दें, अब कोई भी नहीं है। फकीर ने होंठ पर उंगली रखी और कहा कि चुप। आदमी बड़ा परेशान हुआ। उसने कहा कि जब लोग आ जाते हैं तब मैं पूछता हूं तो आप कहते हैं, जब कोई न रहे। और जब कोई नहीं रहता है और मैं पूछता हूं, तो आप कहते हैं, चुप! यह हल कैसे होगा?
फिर सांझ हो गई, सूरज ढल गया, सब लोग चले गए। झोपड़ा खाली हो गया। उसने कहा कि अब तो बताएं! तो फकीर ने कहा, बाहर आ। बाहर गए, पूर्णिमा का चांद निकला था। फकीर ने कहा, देखता है ये पौधे? सामने ही छोटे-छोटे पौधे लगे थे। उसने कहा, देखता हूं। फकीर ने कहा, देखता है वे दूर खड़े वृक्ष आकाश को छूते? उसने कहा, देखता हूं। उस फकीर ने कहा, “वे बड़े हैं और ये छोटे हैं। और झगड़ा कुछ भी नहीं। इनमें मैंने कभी विवाद नहीं सुना। इस छोटे पौधे ने कभी बड़े पौधे से नहीं पूछा कि तू बड़ा क्यों है? छोटा अपने छोटे होने में शांत है। बड़े ने कभी छोटे से नहीं पूछा कि तू छोटा क्यों है? बड़े की अपनी मुसीबतें हैं। जब तूफान आते हैं, तब पता चलता है। छोटे की अपनी तकलीफें हैं। पर छोटा छोटा होने को राजी है, बड़ा बड़ा होने को राजी है। और उन दोनों के बीच मैंने कभी संवाद नहीं सुना। और मैंने दोनों को शांत पाया है। तू भी कृपा कर और मुझे छोड़। मैं जैसा हूं वैसा हूं। तू जैसा है वैसा है।”
पर वह आदमी कैसे माने! हम भी कैसे मानें! मन करता है कुछ होने को। हमने मान रखा है कि हम कुछ कर सकते हैं। ईशावास्य कहता है कुछ नहीं कर सकते। कर्ता नहीं बन सकते।
■ ओशो
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