परमात्मा को समझे बिना, उसे जाने बिना मनुष्य ने अपने चारों तरफ अंधे विश्वास का एक जाल बुन लिया है। और इसे हिंदू, मुस्लिम, जैन, ईसाई...खानों में बांट दिया है। जबकि, वह तो अंतरतम में बसा है...
मैंने सुना है, एक गांव में दो आदमी थे। एक आदमी आस्तिक था, परम आस्तिक था और एक आदमी नास्तिक था, परम नास्तिक। उन दोनों की वजह से गांव बड़ा परेशान था। ऐसे लोगों की वजह से गांव हमेशा ही परेशानी में पड़ जाते हैं, क्योंकि आस्तिक दिन-रात गांव को समझाता था ईश्वर के होने की बात और नास्तिक दिन-रात खंडन करता था। गांव के लोग बड़ी मुश्किल में पड़ गए थे कि किसके साथ जाएं और किसके साथ न जाएं। आखिर गांव के लोगों ने यह तय किया कि हम बहुत मुश्किल में पड़ गए हैं। इन दोनों को कहा जाए कि तुम दोनों गांव के सामने विवाद करो। जो जीत जाएगा हम उसी के साथ हो जाएंगे। यह परेशानी हमारे सिर पर मत डालो। तुम दोनों विवाद कर लो। जो जीत जाएगा हम उसी के साथ हो जाएंगे।
आखिरकार पूर्णिमा की रात, उस गांव में विवाद का आयोजन हुआ। सारे नगर के लोग इकट्ठे हुए। आस्तिक ने अपनी आस्तिकता की बातें समझाई, सब दलीलें दीं, नास्तिकता का खंडन किया। नास्तिक ने आस्तिकता का खंडन किया, नास्तिकता के पक्ष में सारी दलीलें दीं। रात भर विवाद चला और सुबह जो परिणाम हुआ वह यह हुआ कि आस्तिक रात भर में नास्तिक हो गया और नास्तिक आस्तिक हो गया। उन दोनों को एक दूसरे की बातें जंच गईं। गांव की मुसीबत पुरानी की पुरानी बनी रही। वह कोई हल न हुआ। वे एक-दूसरे से सहमत हो गए और गांव की परेशानी वही रही, क्योंकि फिर भी गांव में एक नास्तिक रहा और एक आस्तिक रहा, कुल जोड़ वही रहा।
हम भी जीवन में एक विश्वास को बदल कर दूसरे विश्वास पर चले जाएं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारे प्राणों की परेशानी वही रहती है। इससे कोई भेद नहीं पड़ता। प्राणों की परेशानी न हिंदू के कारण है, न मुसलमान के, न जैन के कारण है, न ईसाई के, न कम्युनिस्ट के कारण है, न फैसिस्ट के। प्राणों की परेशानी इस कारण है कि आप विश्वास करते हैं। जब तक आप विश्वास करते हैं, तब तक आप बंधन को आमंत्रित करते हैं, तब तक आप कारागृह में जाने को खुद निमंत्रण देते हैं अपने को। और तब तक आप किसी न किसी रूप में, कहीं न कहीं बंधे हुए होंगे।
और बंधा हुआ आदमी, बंधा हुआ मन विचारों से कैसे मुक्त हो सकता है? जिन विचारों को वह प्राणपण से पकड़ता हो और विश्वास करता हो उनसे कैसे मुक्त हो सकता है? वह उनसे कैसे छुटकारा पा सकता है? उनसे छुटकारा कठिन है। छुटकारा उनसे हो सकता है, अगर हम बुनियाद के पत्थर को हटा दें। विश्वास, बिलीफ बुनियाद का पत्थर है सारे विचारों के जाल के नीचे। विश्वास के आधार पर मनुष्य को विचारों में दीक्षित किया गया है और जब विचार मन को जोर से पकड़ लेते हैं तो भय भी पकड़ता है कि अगर मैंने इनको छोड़ दिया तो फिर क्या होगा। तो आदमी पूछता है कि अगर इससे बेहतर कुछ मुझे पकड़ने को पहले बता दें तो मैं उसे छोडूं भी, लेकिन पकड़ना ही छोडूं, यह उसके खयाल में नहीं आ पाता। और मन की फ्रीडम, मन की स्वतंत्रता और मन की मुक्ति विश्वासों के परिवर्तन में नहीं, विश्वास मात्र से मुक्त हो जाने में है।
■ ओशो
मैंने सुना है, एक गांव में दो आदमी थे। एक आदमी आस्तिक था, परम आस्तिक था और एक आदमी नास्तिक था, परम नास्तिक। उन दोनों की वजह से गांव बड़ा परेशान था। ऐसे लोगों की वजह से गांव हमेशा ही परेशानी में पड़ जाते हैं, क्योंकि आस्तिक दिन-रात गांव को समझाता था ईश्वर के होने की बात और नास्तिक दिन-रात खंडन करता था। गांव के लोग बड़ी मुश्किल में पड़ गए थे कि किसके साथ जाएं और किसके साथ न जाएं। आखिर गांव के लोगों ने यह तय किया कि हम बहुत मुश्किल में पड़ गए हैं। इन दोनों को कहा जाए कि तुम दोनों गांव के सामने विवाद करो। जो जीत जाएगा हम उसी के साथ हो जाएंगे। यह परेशानी हमारे सिर पर मत डालो। तुम दोनों विवाद कर लो। जो जीत जाएगा हम उसी के साथ हो जाएंगे।
आखिरकार पूर्णिमा की रात, उस गांव में विवाद का आयोजन हुआ। सारे नगर के लोग इकट्ठे हुए। आस्तिक ने अपनी आस्तिकता की बातें समझाई, सब दलीलें दीं, नास्तिकता का खंडन किया। नास्तिक ने आस्तिकता का खंडन किया, नास्तिकता के पक्ष में सारी दलीलें दीं। रात भर विवाद चला और सुबह जो परिणाम हुआ वह यह हुआ कि आस्तिक रात भर में नास्तिक हो गया और नास्तिक आस्तिक हो गया। उन दोनों को एक दूसरे की बातें जंच गईं। गांव की मुसीबत पुरानी की पुरानी बनी रही। वह कोई हल न हुआ। वे एक-दूसरे से सहमत हो गए और गांव की परेशानी वही रही, क्योंकि फिर भी गांव में एक नास्तिक रहा और एक आस्तिक रहा, कुल जोड़ वही रहा।
हम भी जीवन में एक विश्वास को बदल कर दूसरे विश्वास पर चले जाएं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारे प्राणों की परेशानी वही रहती है। इससे कोई भेद नहीं पड़ता। प्राणों की परेशानी न हिंदू के कारण है, न मुसलमान के, न जैन के कारण है, न ईसाई के, न कम्युनिस्ट के कारण है, न फैसिस्ट के। प्राणों की परेशानी इस कारण है कि आप विश्वास करते हैं। जब तक आप विश्वास करते हैं, तब तक आप बंधन को आमंत्रित करते हैं, तब तक आप कारागृह में जाने को खुद निमंत्रण देते हैं अपने को। और तब तक आप किसी न किसी रूप में, कहीं न कहीं बंधे हुए होंगे।
और बंधा हुआ आदमी, बंधा हुआ मन विचारों से कैसे मुक्त हो सकता है? जिन विचारों को वह प्राणपण से पकड़ता हो और विश्वास करता हो उनसे कैसे मुक्त हो सकता है? वह उनसे कैसे छुटकारा पा सकता है? उनसे छुटकारा कठिन है। छुटकारा उनसे हो सकता है, अगर हम बुनियाद के पत्थर को हटा दें। विश्वास, बिलीफ बुनियाद का पत्थर है सारे विचारों के जाल के नीचे। विश्वास के आधार पर मनुष्य को विचारों में दीक्षित किया गया है और जब विचार मन को जोर से पकड़ लेते हैं तो भय भी पकड़ता है कि अगर मैंने इनको छोड़ दिया तो फिर क्या होगा। तो आदमी पूछता है कि अगर इससे बेहतर कुछ मुझे पकड़ने को पहले बता दें तो मैं उसे छोडूं भी, लेकिन पकड़ना ही छोडूं, यह उसके खयाल में नहीं आ पाता। और मन की फ्रीडम, मन की स्वतंत्रता और मन की मुक्ति विश्वासों के परिवर्तन में नहीं, विश्वास मात्र से मुक्त हो जाने में है।
■ ओशो
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