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वाराणसी के जैन देवालय

 सनातन काशी का कण-कण शंकर है। परमधाम काशी में धर्म चिरस्थाई और शाश्वत है। कभी यहाँ तथागत बुद्ध उपदेश देते है तो वही मध्यकाल में कबीर, तुलसी, रैदास की सामाजिक चेतना के रूप में धर्म आम जन के दैनिक क्रियाकलापों के रूप में रचा-बसा मिलता हैं। अनेकानेक साधु-संतो,मठों, आश्रम,गुरुकुल,धर्मप्रचारकों की एक लम्बी श्रृंखला है जो काशी को धर्मक्षेत्र के रूप में अग्रणी पंक्ति में रखती है। इन्हीं सबके बीच काशी में जिन परम्परा की भी एक लम्बी थाती है जिसमे जैन धर्म के 24 में से चार प्रमुख तीर्थंकर पार्श्‍वनाथ (तेइसवें), सुपार्श्‍वनाथ (सातवें), त्रेयांसनाथ (ग्‍यारहवें) व चंद्रप्रभुनाथ जी (आठवें) का जन्‍मस्‍थल धर्म नगरी काशी हैं। 

जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और अंतिम महावीर स्वामी हुए। 24 तीर्थंकरों की इस लम्बी श्रृंखला में तेइसवें पार्श्‍वनाथ का जन्म काशी में हुआ; वर्तमान शोधों के आधार पर इन्हें ही जैन धर्म के स्थापना का श्रेय दिया जाता हैं। जैन धर्म मुख्य रूप से पाँच बातों पर विशेष बल देता है जो क्रमशः अहिंसा, अचौर्य(चोरी नहीं करना), असत्येय (झूठ नहीं बोलना), अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य हैं। 

जैन धर्म 
जैन शब्द संस्कृत के जिन शब्द से बना है, जिसका अर्थ विजेता ( जितेन्द्रिय ) होता है। जैन महात्माओं को निर्ग्रन्थ ( बंधन रहित ) व जैन धर्म के अधिष्ठाता को तीर्थंकर कहा गया। जैन धर्म में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव या आदिनाथ थे। अरिष्टनेमि का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। 22वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि को भी वासुदेव कृष्ण का भाई बताया गया है। जैन धर्मावलम्बियों  विश्वास है कि उनके सबसे महान धर्मोपदेष्टा महावीर थे इसके पहले तेईस और आचार्य हुए हैं, जो तीर्थंकर कहलाते थे।धर्म के प्राचीन सिद्धांतों के उपदेष्टा तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ माने जाते हैं, जो वाराणसी के निवासी थे। जैन अनुश्रुतियों के अनुसार पार्श्वनाथ को 100 वर्ष की आयु में सम्मेद पर्वत पर निर्वाण प्राप्त हुआ। पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित चार महाव्रत इस प्रकार हैं- सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह तथा अस्तेय। 

जैन धर्म के सिद्धांत 

जैन धर्म के पांच व्रत -
अहिंसा या हिंसा नहीं करना चाहिए 
सत्य या झूठ नहीं बोलना चाहिए 
अस्तेय या चोरी नहीं करना चाहिए 
अपरिग्रह या संपत्ति अर्जित नहीं करना  
ब्रह्मचर्य या इंद्रियों को वश में करना 

इन पांच व्रतों में ऊपर के चार पार्श्वनाथ ने दिए थे जबकि पांचवा व्रत ब्रह्मचर्य महावीर ने जोड़ा। जैन धर्म में अहिंसा युअ किसी प्राणी को नहीं सताने के व्रत को सबसे अधिक महत्व दिया गया है। जैन धर्म दो सम्प्रदाओं में विभक्त होगया श्वेताम्बर अर्थात सफ़ेद वस्त्र धारण करने वाले और दिगंबर अर्थात नग्न रहने वाले। जैन धर्म में देवताओं के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है , परन्तु उनका स्थान जिन से नीचे रखा गया है। 


पार्श्वनाथ जैन मंदिर

यह मंदिर जैनियों के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ को समर्पित है, इनका जन्म महावीर स्वामी के जन्म से 250 वर्ष पूर्व हुआ।  इनके पिता- अश्वसेन ( काशी के राजा ) माता- वामादेवी ( नरवर्मन की पुत्री ) थी। पत्नी- प्रभावती ( कुशस्थल की राजकुमारी ) पार्श्वनाथ 23वें तीर्थंकर थे तथा ऐतिहासिक माने जाते है। जैन ग्रंथों में पार्श्वनाथ को पुरुषादनीयं कहा गया है। इनके अनुयायियों को निर्ग्रन्थ कहा जाता था- जो शहर के मध्य क्षेत्र से दूर भेलूपुर में स्थित है। यह मंदिर अपने नाम के अनुरूप तीर्थंकर की जन्मस्थली का स्मरण कराता है। मंदिर में किया गया जाली का कार्य बहुत उत्कृष्ट व जटिल है। इसकी दीवारों पर भी नक्काशी इसका महत्व बढ़ाती है। इस मंदिर का प्रबंधन जैन धर्म के दिगाम्बर सम्प्रदाय द्वारा किया जाता है। पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र होने के साथ-साथ जैन समुदाय के लोगों के लिए यह तीर्थस्थल भी है। ऐसी मान्यता है कि यह भगवान आदिनाथ के समय में बनाया गया था। ऐसा भी कहा जाता है कि काशी के राजा की पुत्री सुलोचना का स्वयंवर यहीं पर आयोजित किया गया था। इस तीर्थ का उल्लेख विविध तीर्थ कल्प में भी मिलता है, जिसकी रचना आचार्य जी प्रभा सूरि स्वराजी ने 14वीं सदी में की थी।

श्रेयांशनाथ दिगम्बर जैन मंदिर, सारनाथ 

श्रेयांसनाथ ग्यारहवें तीर्थंकर हैं। श्रेयांसनाथ जी का जन्म फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की द्वितीया को श्रवण नक्षत्र में सिंहपुरी में हुआ था। प्रभु के माता पिता बनने का सौभाग्य इक्ष्वाकु वंश के राजा विष्णुराज व पत्नी विष्णु देवी को प्राप्त हुआ था। इनके शरीर का वर्ण सुवर्ण (सुनहरा) और चिह्न गेंडा था। भगवान श्रेयांसनाथ तीर्थंकर के जन्म एवं चार कल्याणकों के कारण यह प्राचीन काल से जैन तीर्थ रहा है। यहाँ उनके गर्भ, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान ये चार कल्याणक हुए थे। विद्वानों का मत है कि तीर्थंकर श्रेयाँसनाथ जी का जन्म स्थान होने के कारण ही इस स्थान का नाम ‘‘सारनाथ’ पड़ गया है। श्रेयांसनाथ जी शुरु से ही वैरागी थे। लेकिन माता-पिता की आज्ञानुसार उन्होंने गृहस्थ जीवन को भी अपनाया और राजसी दायित्व को भी निभाया। श्रेयांसनाथ जी के शासनकाल के दौरान राज्य में सुख समृद्धि का विस्तार हुआ। लेकिन जल्द ही उन्होंने अपने पुत्र को उत्तराधिकारी बना वैराग्य धारण कर लिया। जैन धर्मानुसार ऋतुओं का परिवर्तन देखकर भगवान को वैराग्य हुआ। ‘विमलप्रभा’ पालकी पर विराजमान होकर मनोहर नामक उद्यान में पहुँचे और फाल्गुन शुक्ल एकादशी के दिन हजार राजाओं के साथ दीक्षित हुए। दो माह तक प्रभु छ्दमस्थ साधक की भुमिका में रहे। माघ कृष्ण अमावस्या के दिन प्रभु केवली बने। श्रावण कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि को प्रभु श्रेयांसनाथ ने सम्मेद शिखर पर निर्वाण किया।


मंदिर के गर्भगृह में तीर्थंकर श्रेयांसनाथ जी की ढाई फिट ऊँची श्याम वर्ण की मनोज्ञ प्रतिमा विराजमान है उसी वेदी में आगे एक छोटी श्वेतवर्ण की श्रेयांसनाथ की प्रतिमा है। भगवान की वेदी अत्यन्त कलापूर्ण है। मुख्यवेदी के बगल में नन्दीश्वर जिनालय का फलक है जिसमें ६० प्रतिमाएँ बनी हुई हैं यह भूगर्भ से प्राप्त हुई थीं। तीर्थंकर श्रेयांसनाथ जी का मंदिर अत्यन्त रमणीक स्थान पर स्थित है मंदिर के चारों तरफ एवं बाहर की हरियाली का दृश्य नयनाभिराम है। यहाँ ठहरने के लिए जैन धर्मशाला बनी हुई है पर अधिकतर यात्री वाराणसी में ही निवास करते हैं। 

सुपार्श्वनाथ जन्मस्थली, भदैनी 

जैन धर्म के सातवें तीर्थंकर भगवान श्री सुपार्श्वनाथ जी का जन्म वाराणसी के इक्ष्वाकुवंश में ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को विशाखा नक्षत्र में हुआ था। इनके माता का नाम पृथ्वी देवी और पिता का नाम राजा प्रतिष्ठ था। इनके शरीर का वर्ण सुवर्ण था और इनका चिह्न स्वस्तिक था। 

इनके यक्ष का नाम मातंग और यक्षिणी का नाम शांता देवी था। जैन धर्मावलम्बियों के मतानुसार भगवान श्री सुपार्श्वनाथ जी के कुल गणधरों की संख्या 95 थी, जिनमें विदर्भ स्वामी इनके प्रथम गणधर थे। ज्येष्ठ मास की त्रयोदशी तिथि को वाराणसी में ही इन्होंने दीक्षा प्राप्ति की और दीक्षा प्राप्ति के 2 दिन बाद इन्होंने खीर से प्रथम पारण किया। दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 9 महीने तक कठोर तप करने के बाद फाल्गुन कृष्ण पक्ष सप्तमी को धर्म नगरी वाराणसी में ही शिरीष वृक्ष के नीचे इन्हें कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हुई थी।

भगवान श्री सुपार्श्वनाथ जी ने हमेशा सत्य का समर्थन किया और अपने अनुयायियों को अनर्थ हिंसा से बचने और न्याय के मूल्य को समझने का सन्देश दिया। फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की सप्तमी के दिन भगवान श्री सुपार्श्वनाथ ने सम्मेद शिखर पर निर्वाण को प्राप्त किया था।

चन्द्रप्रभ प्रभु जन्मस्थली, चंद्रपुरी 

चन्द्रप्रभ प्रभु आठवें तीर्थंकर के रूप में प्रसिद्ध है। चन्द्रप्रभ जी का जन्म पावन नगरी काशी जनपद के चन्द्रपुरी में पौष माह की कृष्ण पक्ष द्वादशी को अनुराधा नक्षत्र में हुआ था। इनके माता पिता बनने का सौभाग्य राजा महासेन और लक्ष्मणा देवी को मिला। इनके शरीर का वर्ण श्वेत (सफ़ेद) और चिह्न चन्द्रमा था।

चन्द्रप्रभ जी ने भी अन्य तीर्थंकरों की तरह तीर्थंकर होने से पहले राजा के दायित्व का निर्वाह किया। साम्राज्य का संचालन करते समय ही चन्द्रप्रभ जी का ध्यान अपने लक्ष्य यानि मोक्ष प्राप्त करने पर स्थिर रहा। पुत्र के योग्य होने पर उन्होंने राजपद का त्याग करके प्रवज्या का संकल्प किया।

एक वर्ष तक वर्षीदान देकर चन्द्रप्रभ जी ने पौष कृष्ण त्रयोदशी को प्रवज्या अन्गीकार की। तीन माह की छोटी सी अवधि में ही उन्होंने फ़ाल्गुन कृष्ण सप्तमी के दिन केवली ज्ञान को प्राप्त किया और धर्मतीर्थ की रचना कर तीर्थंकर पद उपाधि प्राप्त की। भाद्रपद कृष्णा सप्तमी को भगवान ने सम्मेद शिखर पर मोक्ष प्राप्त किया।

वर्तमान में सुन्दर जिनालय में श्वेत वर्ण के 45 सेमी पद्मासनस्थ श्री चन्द्रप्रभ स्वामी मूलनायक के रूप में विराजमान हैं। यह तीर्थ वाराणसी से लगभग 23 किमी की दूरी पर वाराणसी-गाजीपुर मार्ग पर स्थित हैं। तीर्थ का वर्णन तीर्थमाला में मिलता है और माना जाता है कि विक्रम के 14 सदी में इस तीर्थ का अस्तित्व था। 

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