या देवी सर्वभूतेषू शक्ति रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्ये, नमस्तस्ये, नमस्तस्ये नमो नम:॥
अर्थात, सृष्टि के कण-कण में शक्ति स्वरूप स्थित हे देवी भगवती, आपको शत शत नमन! धर्म में आस्था रखने वालों में विरले ही होगा, जिसे जगतजननी मां विंध्यवासिनी की अलौकिकता का भान न हो। वैसे तो हमलोग कई बार मां के चरणों में शीष नवाने पहुंचे हैं, लेकिन नवरात्रकाल में यहां के दिव्य दर्शन की अनुभूति आज भी तनमन को पुलकित कर देती है। पौराणिक नगरी काशी से लगभग 50 किलोमीटर दूर विंध्य की मनोरम पर्वत शृंखलाओं की गोद में आदि अनादि काल से बसी मां विंध्यवासिनी आद्य महाशक्ति हैं। मीरजापुर के विंध्याचल रेलवे स्टेशन के निकट गंगाजी से महज दो फर्लांग दूर बस्ती के बीचोबीच स्थित मां विंध्यवासिनी का दिव्य स्थल युगों युगों से आस्था का केंद्र है।
कहते हैं त्रिकोण यंत्र पर स्थित विंध्याचल क्षेत्र का अस्तित्व सृष्टि से पूर्व का है तथा प्रलय के बाद भी समाप्त नहीं हो सकता, क्योंकि यहां महालक्ष्मी, महाकाली व महासरस्वती स्वरूपा आद्यशक्ति मां विंध्यवासिनी विराजती हैं।भोर के वक्त मां के धाम पहुंचते ही सबसे पहले हमलोगों ने गंगा स्नान किया, फिर 'जय माता दी का उद्घोष करते जा पहुंचे दिव्य धाम! नवरात्र का पर्व, भक्तों की अपार भीड़, जैसे-जैसे गर्भगृह के निकट पहुंचते गए, वैसे-वैसे 'जय माता दी की अंर्तध्वनि तीव्र होती गई। इस पुण्य स्थल का बखान पुराणों में तपोभूमि के रूप में किया गया है। यहां सिंह पर आरूढ़ देवी का विग्रह ढाई हाथ लंबा है। इस संदर्भ में अनेक कथाएं हैं।
श्रीमद्देवीभागवत के दसवें स्कंध में सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने सबसे पहले स्वयंभुवमनु तथा शतरूपा को प्रकट किया। स्वयंभुवमनु ने देवी की मूर्ति बनाकर सौ वर्षों तक कठोर तप किया, जिससे प्रसन्न हो भगवती ने उन्हें निष्कंटक राज्य, वंश-वृद्धि, परमपद का आशीर्वाद दिया। वर देकर महादेवी विंध्याचल पर्वत पर चलीं गईं, जिससे स्पष्ट है कि सृष्टिकाल से ही विंध्यवासिनी की पूजा होती रही है और सृष्टि विस्तार उन्हीं के शुभाशीष से संभव हुआ। त्रेतायुग में श्रीराम ने यहां देवी पूजा कर रामेश्वर महादेव की स्थापना की, जबकि द्वापर में वसुदेव के कुल पुरोहित गर्ग ऋषि ने कंस वध एवं श्रीकृष्णावतार हेतु विंध्याचल में लक्षचंडी का अनुष्ठान किया था।
मार्कण्डेय पुराण के अंतर्गत वर्णित दुर्गासप्तशती (देवी माहात्म्य) के ग्यारहवें अध्याय के 41-42 श्लोकों में मां भगवती कहती हैं 'वैवस्वत मन्वंतर के 28वें युग में शुंभ-निशुंभ नामक महादैत्य उत्पन्न होंगे, तब मैं नंदगोप के घर उनकी पत्नी यशोदा के गर्भ में अवतीर्ण हो विंध्याचल जाऊंगी और महादैत्यों का संहार करूंगी। श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम स्कंध में श्रीकृष्ण जन्माख्यान में वर्णित है कि देवकी के आठवें गर्भ से आविर्भूत श्रीकृष्ण को वसुदेवजी ने कंस के भय से रातोंरात यमुना नदी पार कर नंद के घर पहुंचाया तथा वहां से यशोदा नंदिनी के रूप में जन्मीं योगमाया को मथुरा ले आए। आठवीं संतान के जन्म की सूचना मिलते ही कंस कारागार पहुंचा। उसने जैसे ही कन्या को पत्थर पर पटककर मारना चाहा। वह उसके हाथों से छूट आकाश में पहुंची और दिव्य स्वरूप दर्शाते हुए कंस वध की भविष्यवाणी कर विंध्याचल लौट गई।
मंत्रशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रंथ शारदातिलक में विंध्यवासिनी को वनदुर्गा बताया गया है। कहते हैं, ब्रह्मा, विष्णु व महेश भी भगवती की मातृभाव से उपासना करते हैं, तभी वे सृष्टि की व्यवस्था करने में समर्थ होते हैं।माता विंध्यवासिनी विंध्य पर्वत पर मधु तथा कैटभ नामक असुरों का नाश करने वाली भगवती यंत्र की अधिष्ठात्री हैं। यहां संकल्प मात्र से उपासकों को सिद्धि प्राप्त होती है, इसलिए इन्हें सिद्धिदात्री भी कहते हैं। यूं तो आदिशक्ति की लीला भूमि विंध्यवासिनी धाम में सालभर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है, पर शारदीय व चैत्र नवरात्र में यहां देश के कोने कोने से आए भक्तों का सैलाब उमड़ पड़ता है।
मान्यता है कि शारदीय व वासंतिक नवरात्र में मां भगवती नौ दिनों तक मंदिर की छत के ऊपर पताका में ही विराजमान रहती हैं। सोने के इस ध्वज की विशेषता यह है कि यह सूर्य चंद्र पताकिनी के रूप में जाना जाता है। यह निशान सिर्फ मां विंध्यवासिनी के पताका में ही होता है।ऋषियों के अनुसार देवी के ध्यान में स्वर्णकमल पर विराजी, त्रिनेत्रा, कांतिमयी, चारों हाथों में शंख, चक्र, वर और अभय मुद्रा धात्री, पूर्णचंद्र की सोलह कलाओं से परिपूर्ण, गले में वैजयंती माला, बाहों में बाजूबंद और कानों में मकराकृति कुंडल धात्री, इंद्रादि देवताओं द्वारा पूजित चंद्रमुखी परांबा विंध्यवासिनी का स्मरण होना चाहिए, जिनके सिंहासन के बगल में वाहन स्वरूप महासिंह है। मूर्तिरहस्य में ऋषियों के अनुसार नन्दा नाम की नंद के यहां उत्पन्न होने वाली देवी की भक्तिपूर्वक स्तुति और पूजा किए जाने पर वे तीनों लोकों को उपासक के अधीन कर देती हैं। शक्तिपीठ तंत्रशास्त्रोक्त त्रिकोण रूपा साधकों द्वारा युगों से सेवित है। भगवती महाशक्ति के त्रिगुणात्मक स्वरूप का संपूर्ण दर्शन यहां होता है।
त्रिकोण यंत्र के पश्चिम कोण पर उत्तर दिशा की ओर मुख किए हुए अष्टभुजी देवी विराजमान हैं। अपनी अष्टभुजाओं से सब कामनाओं को साधती हुई वह संपूर्ण दिशाओं में स्थित भक्तों की आठ भुजाओं से रक्षा करती हैं। धारणा है कि वहां अष्टदल कमल आच्छादित है, जिसके ऊपर सोलह, फिर चौबीस दल हैं, बीच में एक बिंदु है, जिसमें ब्रह्मरूप में महादेवी अष्टभुजी निवास करती हैं। यहां से महज तीन किलोमीटर दूर 'काली खोह नामक स्थान पर महाकाली स्वरूपा चामुंडा देवी का मंदिर है, जहां देवी का विग्रह बहुत छोटा लेकिन मुख विशाल है। इनके पास ही भैरवजी का स्थान है। ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की षष्ठी तिथि में विंध्यवासिनी के दर्शन और पूजन का अतिशय माहात्म्य माना गया है।
पवित्र गंगा की कलकल करती धाराओं से लगा यह क्षेत्र महज भूखंड नहीं, बल्कि कला एवं संस्कृति का अद्भुत अध्याय है। यहां की माटी में अतीत के विविध तथ्य विश्राम कर रहे हैं। यहां से कुछ ही किलोमीटर दूर चुनारघाट से लगा ऐतिहासिक चुनारगढ़ का किला है, जिससे अनेक फंतासी व किंवदंतियां जुड़ी हैं। चुनार क्षेत्र में बनने वाले चीनी मिट्टी के खिलौने, बर्तन व सजावट के समान अपनी अद्भुत कारीगरी के लिए विश्व विख्यात हैं। विंध्य क्षेत्र में ही देवीधाम के आसपास चालीस किलोमीटर वृत्तक्षेत्र में पुरातात्विक महत्व के नौगढ़ व विजयगढ़ के विश्वप्रसिद्ध किले मौजूद हैं, जबकि विंडमफॉल, राजदरी, देवदरी, लखनिया दरी जैसे झील-झरनों से लबरेज नैसर्गिक क्षेत्र हैं, जहां जाने वाले को वहीं बस जाने का जी करता है। यहां के लोगों का सरल जीवन मां भगवती की भक्ति से ओतप्रोत है तथा इस क्षेत्र की लोक कलाओं का कोई सानी नहीं! कुल मिलाकर जप, तप, ध्यान, ज्ञान, आस्था, संस्कृति, सभ्यता व पर्यटन की अनूठी मिसाल विंध्याचल सही मायने में हमें जीने की कला सिखाता है।
-सर्वेश...