बुद्धत्व का सार सारनाथ - Kashi Patrika

बुद्धत्व का सार सारनाथ



भगवान बुद्ध कहते हैं, जीवन की वास्तविक कला मौन है। इसेके पाने के लिए मन के पार जाकर इसे नियंत्रित करना है। यहीं वह सीमा है, जहां से हम ध्यान की ओर बढ़ते हैं और फिर बुद्ध बनकर ध्यान से अनंत में प्रवेश कर जाते हैं। जीवन को ध्यान और अध्यात्म से जितनी सरलता से बुद्ध ने जोड़ा, उतना शायद ही किसी ने जोड़ा हो। बोधगया में सत्य का बोध होने के बाद बुद्ध काशी के निकट सारनाथ पहुंचे और बुद्धत्व का पहला उपदेश दिया। यहीं वजह है कि सारनाथ को बुद्धत्व का सार माना जाता है।
   
      
भगवान बुद्ध ने जीवन और ध्यान के संयोजन को समझाते हुए कहा कि शून्य में जाना ध्यान की पहली सीढ़ी है, इसके लिए जरूरी नहीं कि कोई एक विधि हो! शांत वातावरण को सुनना, प्रकाश तथा अंधकार में विलीन होना भी ध्यान की अतल गहराई में उतरने जैसा है। सभी विधियां आंतरिक मौन की ओर ले जाती हैं। यह विधियां सक्रिय हों या निष्क्रिय कोई फर्क नहीं पड़ता, लक्ष्य एक होना चाहिए, मौन को उपलब्ध होना ताकि सभी प्रकार के विचार विलीन हो जाएं और हम सिर्फ दर्पण रह जाएं। यहीं से अनंत प्रारंभ होगा, जिसकी व्यापकता सर्वत्र होगी।

बुद्धिज्म की शुरुआत
बुद्धत्व प्राप्ति के बाद सिद्धार्थ ने बुद्ध के रूप में अपने ज्ञान के प्रकाश से संसार को आलोकित करना शुरू किया। बोधगया से नई चेतना के साथ बुद्ध काशी से सात मील पूर्वोत्तर में स्थित सारनाथ पहुंचे, जहां से बुद्धत्व का संचार प्रारंभ हुआ। यहीं पर भगवान बुद्ध ने पहला उपदेश देते हुए धर्म चक्र प्रवर्तन प्रारंभ किया। उन्होंने कौडिन्य व अन्य पंच अनुयायियों के साथ सत्संग कर नये मत की दीक्षा दी। इसी प्रथम प्रवचन को उन्होंने धर्मचक्रप्रवर्तन बताया, जो कालांतर में भारतीय मूर्तिकला के क्षेत्र में सारनाथ का प्रतीक माना गया। बौद्धकाल में इसे ऋषिपत्तन (पाली-इसीपत्तन) कहते थे, क्योंकि काशी के निकट होने से यह स्थल ऋषि-मुनियों को प्रिय था। बुद्ध के जीवनकाल में ही काशी के श्रेष्टी नंदी ने ऋषिपत्तन में एक बौद्ध विहार बनवाया, जिसे ‘ऋषिपत्तन मृगदाय’ ·हा गया। इसका संबंध बोधिसत्व की एक कथा से भी है, जिसमें यहां मृगदाव नामक मृगों का वन था। कहते हैं बोधिसत्व अपने किसी पूर्वजन्म में यहां मृगों के राजा थे। उन्होंने अपने प्राणों की बलि देकर एक गर्भवती हिरणी की जान बचाई थी। इसी कारण इस वन को सार-या सारंग (मृग)- नाथ कहने लगे।

एक किंवदंती के अनुसार बौद्ध धर्म के प्रचार के पूर्व सारनाथ शिवोपासना का केंद्र था। पुराणों में शिव को भी सारंगनाथ कहा गया है और काशी की समीपता के कारण यह शिवोपासना की भी स्थली बन गया। बाद में मृगदाय में सारंगनाथ महादेव की मूर्ति की स्थापना हुई और स्थान का नाम सारनाथ पड़ गया। इसकी पुष्टि यहां के सारनाथ नामक शिवमंदिर से होती है। श्रावण में यहां विशाल मेला लगता है।


अतीत के झरोखे में सारनाथ

तीसरी शती ई.पू. में सम्राट अशोक ने सारनाथ की यात्रा कर यहां कई स्तूप और एक सुंदर प्रस्तर स्तंभ स्थापित कराया, धर्म लिपि अंकित है। इसी स्तंभ का सिंह शीर्ष (शेरों के तीन मुख वाली मूर्ति) तथा धर्मचक्र (अशोक चक्र) हमारा राष्ट्रीय चिह्न है। चौथी शताब्दी में यहां आए चीनी यात्री फाह्यान नेचार बड़े स्तूप और पांच विहार का उल्लेख किया है। छठी शताब्दी में में हूणों के सेनापति मिहिरकुल ने यहां के प्राचीन स्मारकों को घोर क्षति पहुंचाई। फिर, सातवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में सारनाथ पहुंचे प्रसिद्ध चीनी यात्री युवानच्वांग ने यहां 30 बौद्ध विहार का उल्लेख किया है, जिनमें 1500 थेरावादी भिक्षु निवास करते थे। युवानच्वांग ने सारनाथ में 100 हिंदू देवालय भी देखे जाने की बात लिखी है। 11वीं शताब्दी में महमूद गजनवी ने यहां के स्मारकों को काफी नुकसान पहुंचाया, फिर 1194 में मुहम्मद गौरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ने तो यहां की बचीखुची इमारतों तथा कलाकृतियों को लगभग समाप्त ही कर दिया। केवल दो विशाल स्तूप ही छह शतियों तक अपने स्थान पर खड़े रहे। फिर, 1794 में काशी-नरेश चेत सिंह के दीवान जगत सिंह ने जगतगंज नामक वाराणसी के मुहल्ले को बनवाने के लिए एक स्तूप की सामग्री काम में ले ली। पुरातन ईटों से बने इस स्तूप का व्यास 110 फुट था। कहते हैं कि यह अशोक द्वारा निर्मित धर्मराजिक नामक स्तूप था। जगतसिंह ने जब उत्खनन करवाया, तो इस विशाल स्तूप में से बलुवा पत्थर और संगमरमर के दो बर्तन मिले थे, जिनमें बुद्ध के अस्थि-अवशेष थे। उन्हें गंगा में प्रवाहित कर दिया गया।

पुरातात्विक महत्व भी कम नहीं 

पुरातात्विक दृष्टिकोण से भी सारनाथ बेहद महत्वपूर्ण है। सन 1905 में पुरातत्व विभाग ने यहां खुदाई शुरू की, फिर बौद्ध अनुयायियों और इतिहासकारों का ध्यान इधर गया। धीरे-धीरे इस स्थल की पुरानी रौनक लौटने लगी और आज यह विश्व समुदाय को आकर्षित करता है। यहां किए गए उत्खनन में 12वीं शताब्दी के विध्वंसक मंजर उजागर होते है, जब हमलावरों के भय यहां के लोग एकाएक भाग निकले थे, क्योंकि विहारों की कई कोठरियों में मिट्टी के बर्तनों में पकी दाल और चावल के अवशेष मिले थे। सन 1854 में अंग्रेज सरकार ने सारनाथ को एक नील के व्यवसायी फग्र्युसन से खरीद लिया। फिर, यहां लंका के धर्मपाल के प्रयत्नों से मूलगंधकुटी विहार नामक बौद्ध मंदिर बना। सारनाथ के अवशिष्ट प्राचीन स्मारकों में प्रसिद्ध चौखंडी स्तूप मिला, जिस पर सम्राट अकबर के समय सन 1588 का एक फारसी अभिलेख खुदा है। अभिलेख में हुमायूं के इस स्थान पर विश्राम करने का उल्लेख है। यहां प्रमुख एवं पौराणिक महत्व के रूप में अशोक का चतुर्मुख सिंह स्तंभ, भगवान बुद्ध का मंदिर, धमेख स्तूप, चौखंडी स्तूप, वस्तु संग्रहालय, जैन मंदिर, मूलगंधकुटी और नवीन विहार प्रसिद्ध हैं। धमेक स्तूप आज भी सारनाथ की प्राचीनता का बोध कराता है। पुरातत्वविदों के अनुसार धमेख अथवा धर्ममुख स्तूप गुप्तकालीन है, जो भावी बुद्ध मैत्रेय के सम्मानार्थ बनवाया गया था। किंवदंती है कि यह वही स्थल है जहां मैत्रेय को गौतम बुद्ध ने उसके भावी बुद्ध बनने के विषय में भविष्यवाणी की थी।


शिल्पकला का अद्भुत समन्वय

खुदाई में धमेख स्तूप के पास अनेक खरल मिले थे जिससे लगता है कि किसी समय यहां औषधालय रहा होगा। स्तूप में से अनेक सुंदर पत्थर निकले थे। इसके अलावा गुप्तकालीन अनेक कलाकृतियां तथा बुद्ध प्रतिमाएं मिली, जो यहां के संग्रहालय में सुरक्षित हैं। गुप्तकाल में मूर्तिकला की एक अलग शैली प्रचलित थी, जो बुद्ध की मूर्तियों के आत्मिक सौंदर्य तथा शारीरिक सौष्ठव की मिश्रित भावयोजना के लिए प्रसिद्ध है। सारनाथ में एक प्राचीन शिव मंदिर तथा एक जैन मंदिर भी स्थित हैं। जैन मंदिर 1824 ई. में बना था, इसमें श्रियांशदेव की प्रतिमा है। जैन किंवदंती है कि ये तीर्थकर सारनाथ से लगभग दो मील दूर स्थित सिंह पुर नामक ग्राम में तीर्थकर भाव को प्राप्त हुए थे। सारनाथ से कई महत्त्वपूर्ण अभिलेख भी मिले हैं, जिनमें प्रमुख काशीराज प्रकटादित्य का शिलालेख है। इसमें बालादित्य नरेश का उल्लेख है, जो फ्लीट के मत में वही बालादित्य है, जो मिहिरकुल हूण के साथ वीरतापूर्वक लड़ा था। यह अभिलेख शायद 7वीं शती के पूर्व का है। दूसरे अभिलेख में हरिगुप्त नामक एक साधु द्वारा मूर्तिदान का उल्लेख है। यह अभिलेख 8वीं शती का है।


आधुनिकता के साथ सृजनात्मकता 

आठ साल पहले अफगानिस्तान के बामियान में तालिबान द्वारा गिराई गई भगवान बुद्ध की विशाल प्रतिमा की याद में सारनाथ बुद्ध की दुनिया में सबसे ऊंची मूर्ति स्थापित होने जा रही है। थाइलैंड की मृगदाय वन महाविहार सोसाइटी द्वारा लगवाई जा रही इस 90 फुट ऊंची प्रतिमा का निर्माण चुनार के बलुआ पत्थर से हुआ है। गंधार शैली में निर्मित यह मूर्ति खिलते कमल पर रखी दिखेगी, जो दुनिया को प्रेम और शांति का संदेश देती प्रतीत होगी। करीब दो करोड़ रुपये की लागत से निर्मित यह प्रतिमा बौद्ध उपासकों के चंदे से तैयार हुई है।


म्युजि़यम में सहेजी विरासत 

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का प्राचीनतम संग्रहालय भी सारनाथ में है, जिसके निर्माण का फैसला 1904 में यहां की खुदाई में मिली अति प्राचीन विरासत को सहेजने के लिए किया गया। सन 1910 में तैयार यह म्युजि़यम आधे मठ (संघारम) के रूप में है, जहां पांच दीर्घाएं और दो बरामदे हैं। यहां रखी पुरावस्तुएं तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से 12वीं शताब्दी ईसवी तक की हैं। पुरावस्तुओं के आधार पर दीर्घाओं का नामकरण है, जिसके तहत उत्तर में ‘तथागत’, फिर ‘त्रिरत्न’, मुख्य कक्ष ‘शाक्यसिंह’, इसके बाद ‘त्रिमूर्ति’ और दक्षिण में अंतिम ‘आशुतोष’ दीर्घा है। उत्तरी और दक्षिणी ओर के बरामदे को ‘वास्तुमंडन’ और ‘शिल्परत्न’ नाम दिया गया है। प्रवेश द्वारा मुख्य कक्ष से है। ‘शाक्यसिंह’ दीर्घा सर्वाधिक मूल्यवान संग्रहों को प्रदर्शित करती है, जिसके केंद्र में हमारा राष्ट्रीय चिन्ह यानी मौर्य स्तंभ का ‘सिंह स्तंभ शीर्ष’ है। यहां ‘बुद्ध’ और ‘तारा’ की विविध मुद्राओं वाली मूर्तियां, लाल बलुआ पत्थर की ‘बोधिसत्व’ की खड़ी मुद्रा वाली मूर्तियां, अष्टभुजी शॉफ्ट, छतरी भी प्रदर्शित हैं।

‘त्रिरत्न’ दीर्घा में बौद्ध देवगणों की मूर्तियां और संबद्ध वस्तुएं हैं। ‘मंजुश्री’ के रूप वाली ‘सिद्ध·विरा’ की मूर्ति, खड़ी मुद्रा में तारा, बैठी मुद्रा में बोधिसत्व ‘पद्मपाणि’, श्रावस्ती के चमत्कार को दर्शाने वाला ‘प्रस्तर-पट्ट’, ‘जम्भाला’ और ‘वसुंधरा’, ‘रामग्राम’ स्तूप, ‘कुमारदेवी’ के अभिलेख, ‘अष्ट महास्थान’ (बुद्ध के जीवन से जुड़े आठ महान स्थल) को दर्शाता ‘प्रस्तर-पट्ट’, शुंगकालीन रेलिंग आदि हैं। 

‘तथागत’ दीर्घा में विविध मुद्रा में बुद्ध, वज्रसत्व, बोधित्व पद्मपाणि, विष के प्याले के साथ नीलकंठ लोकेश्वर, मैत्रेय, सारनाथ कला शैली की सर्वाधिक उल्लेखनीय प्रतिमा उपदेश देते हुए बुद्ध की मूर्तियां प्रदर्शित हैं।

‘त्रिमूर्ति’ दीर्घा में बैठी मुद्रा में गोल तोंद वाले यक्ष की मूर्ति, त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु और महेश) की मूर्ति, सूर्य, सरस्वती, महिषासुर मर्दिनी की मूर्तियां तथा पक्षियों, जानवरों, पुरुष और महिला के सिरों की मूर्तियों जैसी कुछ धर्म-निरपेक्ष वस्तुएं और साथ ही कुछ गचकारी वाली मूर्तियां हैं।

‘आशुतोष’ दीर्घा में, विभिन्न स्वरूपों में शिव, विष्णु, गणेश, कार्तिकेय, अग्नि, पार्वती, नवग्रह, भैरव जैसे ब्राह्मण देवगण और शिव द्वारा अंधकासुरवध की विशालकाय मूर्ति है। वास्तुकला संबंधी अवशेष संग्रहालय के बरामदों में हैं। ‘शांतिवादिना’ जातक कथा को दर्शाती विशाल व सुंदर ‘सोहावटी’ कलाकृति है।

तफरीह का वक्त और साधन 
संग्रहालय शुक्रवार को छोड़ सप्ताह के बाकी दिन 10 से 5 बजे तक खुला रहता है। यहां 15 साल के बच्चों का प्रवेश मुफ्त है, जबकि अन्य लोगों से अंशमात्र शुल्क लिया जाता है। पूरा साल सारनाथ जाने के लिए अनुकूल हैं, हालांकि ठंड के दिनों में ऊनी वस्त्र ले जाना नहीं भूलें। यहां जाने के लिए नजदीकी एयरपोर्ट बाबतपुर (30 किमी) और रेलवे स्टेशन वाराणसी (12 किमी) हैं, जहां से बसें, टैक्सी, ऑटो व रिक्शा तमाम साधन मौजूद हैं। यहां के स्थानीय सारनाथ रेलवे स्टेशन पर भी कुछ ट्रेनें रुकती हैं।

-सर्वेश...