महर्षि वेदव्यास एक बार तीर्थ-यात्रा पर चल पड़े। मध्य मार्ग में नैमिशारण्य पहुंचे। व्यास जी के आगमन पर वहां के ऋषि-मुनि और पंडित बहुत प्रसन्न हुए। आदर-सत्कार के बाद वहां पर एक गोष्ठी हुई। वहां के अधिकांश विद्वान और पंडित शिव-भक्त थे। उस प्रसंग में पंडित ने कहा, "विश्वेश्वर से बढ़कर श्रेष्ठ देव कोई नहीं है। वे ही परब्रह्म और परमेश्वर हैं। अन्य सभी देवता उनके अधीन हैं।"
इस पर महर्षि व्यास ने इस तर्क का खंडन करते हुए अपना मंतव्य प्रतिपादित किया, "श्रीमहाविष्णु ही अंतर्यामी हैं। वे आदि, अनंत और अच्युत हैं। परात्पर एवं सकलार्थ प्रदाता हैं। वे ही सर्वलोकों के लिए आराध्य देव हैं। वेदवेद्य हैं। वेद से बढ़कर उत्तम शास्त्र नहीं है।"
महर्षि व्यास के प्रतिपादन पर नैमिशारण्यवासी अत्यंत खिन्न हुए और मुक्तकंठ से बोले, "महर्षि, आप हमारे लिए वंदनीय हैं। श्रुति, स्मृति और पुराणों के मर्मज्ञ हैं। वेद-व्यास हैं। परंतु आपके इस कथन को हम कभी स्वीकार नहीं करेंगे। यदि आप हमारे कथन पर विश्वास नहीं करते हैं तो स्वयं काशी जाकर विश्वेश्वर के दर्शन कीजिए। प्रत्यक्ष रूप से परमेश्वर के स्वयंप्रकाश होने का अनुभव करेंगे।"
शिव-भक्तों का हठ देख वेद व्यास रुष्ट हुए और उसी वक्त वे अपने शिष्यों के साथ काशी की यात्रा पर चल पड़े। हरिनाम का स्मरण करते हुए विश्वेश्वरालय पहुंचे। अपने शिष्यों के मध्य खड़े होकर दायां हाथ उठाकर उच्च स्वर में बोले, "समस्त लोकों के लिए एकमात्र आराध्य देव श्रीमहाविष्णु हैं, यह सत्य हैं। नित्य हैं।" महर्षि के शिष्यों ने उनका अनुकरण किया।
विश्वेश्वरालय के मुख्यद्वार पर विराजमान नंदीश्वर ने क्रोधित हो शाप दिया, "परमेश्वर की अवज्ञा करने वाले वेद-व्यास महर्षि का हाथ वहीं पर स्थिर रहे। उनकी वाणी मूक हो जाए।" फिर क्या था, व्यास जी का हाथ स्तंभित रह गया। उनकी वाणी अवरुद्ध हो गई।
विनोदप्रिय श्रीमहाविष्णु यह सारा तमाशा देख रहे थे। उन्होंने व्यास जी को संबोधित कर कहा, "महर्षि, तुमने निश्चय ही बड़ा अपराध किया। पार्वती पति शिव जी ही सर्वेश्वर हैं। शिव-शंभु की अनुकंपा से मैं लक्ष्मीपति, चक्रधारी तथा अपार ऐश्वर्य का स्वामी बना हुआ हूं। यदि तुम मनसा, वाचा और कर्मणा मेरे प्रति भक्ति रखते हो, तो महेश्वर की प्रार्थना कर उनका अनुग्रह प्राप्त करो।"
श्रीमहाविष्णु का आदेश पाकर महर्षि व्यास ने शिव जी का स्तोत्र करना चाहा, किंतु उनके मुंह से वाणी प्रस्फुटित नहीं हुई। इसे भांपकर श्रीहरि ने अपने हाथ से व्यास जी के कंठ का स्पर्श किया। तत्क्षण उन्हें वाक्-शक्ति तो प्राप्त हुई, किंतु उनका उठा हुआ हाथ उठा ही रह गया। इसके बाद व्यास जी ने विनम्र स्वर में परमेश्वर की प्रार्थना की, "शिव शंकर ही देवदेव है, द्वंद्वातीत परमेश्वर हैं। कालकूट का पान करके ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं की रक्षा करनेवाले परात्पर हैं।"
व्यास महर्षि के मुंह से इस आत्म-निवेदन के साथ उनका हाथ पूर्ववत् हो गया। इस पर व्यास जी ने तत्काल शिवलिंग प्रतिष्ठित कर उनकी अर्चना की। वही कालांतर में व्यासेश्वर नाम से प्रसिद्ध हुआ। व्यास शिव जी की महिमा का गान करते हुए काशी नगरी में वास करने लगे।
समय परिवर्तनशील होता है। सदा एक-सा नहीं होता। एक दिन व्यास जी तथा उनके शिष्यों को काशी नगरी में कहीं भिक्षा नहीं प्राप्त हुई। व्यास जी ने अपने शिष्यों से इसका कारण पूछा। वे कोई उत्तर नहीं दे पाए। दो-चार दिन यही हाल रहा। व्यास जी विस्मय में आ गए। वे अपने मन में विचारने लगे, "जहां विश्वेश्वर, अन्नपूर्णा और गंगा का वास है, उस क्षेत्र में अन्न का अभाव कैसा? इस नगरी को कैवल्य कहा जाता है। यह भी माना जाता है कि इस नगर के निवासी पुनर्जन्म के बंधनों से मुक्त हैं। अन्नपूर्णा के रहते क्षुधा-प्यास कैसी?"
अपने शिष्यों को भूख-प्यास से तड़पते देख व्यथित होकर व्यास जी ने काशी नगरी को शाप दिया, "तीन पीढ़ियों तक यह नगर विद्या संपत्ति और मुक्ति से वंचित हो जाए।"
आश्चर्य की बात। उसी समय विशालाक्षी मंदिर के सामने एक गृहिणी प्रत्यक्ष हुई। उन्होंने व्यास के समीप पहुंचकर निवेदन किया, "साधु पुरुष! आज हमें एक अतिथि भी प्राप्त नहीं हुए। मेरे पतिदेव का यह व्रत है कि वे अतिथि को भोजन कराए बिना अन्न ग्रहण नहीं करते। आप कृपया हमारे घर पधारकर हमारा उद्धार कीजिए।"
व्यास जी ने विस्मय में आकर पूछा, "माते। आप कौन हैं? आप तो अन्नपूर्णा-सी प्रतीत हो रही हैं। मैं आपका अनुरोध अवश्य स्वीकार करूंगा। किंतु मेरा एक नियम है। मैं अपने शिष्यों को भोजन कराए बिना अन्न ग्रहण नहीं करता। मेरे दस हजार शिष्य हैं। सूर्यास्त से पूर्व अगर आप हम सबको भोजन कराने का आश्वासन दें तो मैं प्रसन्नतापूर्वक आपके आदेश का पालन करूंगा।"
गृहिणी ने महर्षि व्यास की प्रार्थना मान ली। थोड़ी देर में व्यास जी अपने शिष्यों समेत उस गृहिणी के द्वार पर पहुंचे। उस गृहिणी ने आदरपूर्वक सबका स्वागत करके उन्हें भरपेट भोजन कराया। सबको नए वस्त्र भेंट किए।
भोजन के बाद व्यास जी ने इस गृहिणी को आर्शीर्वाद दिया। जब वह उस गृह से लौटने लगे, तब गृहिणी ने महर्षि को प्रणाम करके पूछा, "ऋषिवर! आप तो सर्वज्ञ हैं। कृपया मुझे बताइए, तीर्थयात्रियों का धर्म क्या है?"
व्यास महर्षि ने उत्तर दिया, "माते तीर्थयात्रियों को शांत चित्त और निर्मल हृदय होना चाहिए। उन्हें अरिषड वर्गो पर संयम रखना है। ये ही उनके परम धर्म होते हैं।"
"महर्षि, कृपया आप यह बताने का कष्ट करें कि आपने इन धर्मो का पालन किया है?" गृहिणी ने प्रश्न किया।
व्यास महर्षि निरुत्तर हो नतमस्तक खड़े रह गए। उसी समय उस गृह के स्वामी प्रवश करके बोले, "आपने क्रोध में आकर इस नगर को शाप दिया। आप तपस्वी हैं। आपने तीर्थयात्रियों के जो धर्म बताए, उनका अतिक्रमण किया। इसलिए आप जैसे लोगों के लिए इस पवित्र क्षेत्र में कोई स्थान नहीं है। आप इसी समय इस क्षेत्र को छोड़कर चले जाइए।"
महर्षि ने समझ लिया कि ये दंपति साक्षात् शिव और पार्वती हैं। उन्हें आत्मज्ञान हुआ। अन्नपूर्णा के चरणों में झुककर प्रार्थना की, "महादेवी जी! आप कृपया मुझे प्रत्येक अष्टमी के दिन इस पवित्र तीर्थ काशी नगरी में प्रवेश करने की अनुमति प्रदान करें।"
व्यास जी का पश्चाताप देख आदि दम्पति प्रसन्न हुए और उन्हें अनुमति प्रदान की, परंतु अपने अपराध के कारण महर्षि काशी क्षेत्र को छोड़कर चले गए और गंगा के उस पार अपना आश्रम बनाया।
महर्षि को ज्ञानोदय हुआ- आत्मा सर्वेशुभूतानि।
तुलसीदास ने भी शिव-केशव को अभेद बताते हुए श्रीरामचंद्र के मुंह से कहलवाया है -
शिवद्रोही मम दास कहावा
सो नर सपने हि मोहि न भावा।।
(सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'पौराणिक कथाएं' से साभार)....
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