वादे वादे और सिर्फ वादे; चाहो तो वादों से पेट भर लो, चाहो तो बिछा-ओढ़ कर सो जाओ, जो तुम्हारी इक्छा सो करो उनके पास तुम्हें देने को तो केवल वादे ही है जो वो तुमको परोस रहे है।
शाशन व्यवस्थ का वही ढुलमुल रवैया और गरीबों की फरियादों का वही निपटारा -तुम्हारे लिए जगह नहीं है। आखिर कब तक लोकतंत्र के नाम पर राजनैतिक पार्टिया अपनी रोटी सेकती रहेंगी इससे अच्छा तो जनता को शाशन के बीच में चुने हुए प्रतिनिधियों के पुनर्मूल्यांकन का अधिकार दे दिया जाए जिससे उससे हुई एक चूक के लिए उसे पांच साल न भुगतना पड़े।
अगर मध्यावधि पुनर्मूल्यांकन का अधिकार जनता के हाथ में होगा तो वो अपने चुने हुए प्रीतिनिधियों को कम से कम हटा तो सकती है और इससे चुना गया प्रतिनिधि भी अपनी जिम्मेदारी बखूभी निभाएगा।
बात आर्थिक रूप से कमजोर स्वर्णो के आरक्षण की तो वो आज नहीं तो कल अपने हक़ की लड़ाई लड़ने को विवश होंगे ही क्योकि जो लोकतंत्र आज चल रहा है उसमे सबसे ज्यादा प्रताड़ित वही है और इससे निकलने का उनके पास कोई हल भी नहीं है। निकट भविष्य में कोई भी राजनैतिक दल उनकी मांगों को नहीं उठाने वाला तो टकराव का आखरी रास्ता आज आए या साल दो साल के अंदर इसे आना ही है।
- संपादकीय
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