बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय। सौंह करै, भौंहन हँसै, देन कहै नटि जाय॥ आज हम सर्वोत्तम पक्षकार में प्रेम के विषय में बात करेंगे। निस्वार्थ प्रेम; जिसे सभी ज्ञानियों - ध्यानियों ने प्रभु को प्राप्त करने का एक माध्यम बताया है। आज तक हम सिर्फ दो शरीरों के प्रेम का नाम ही प्रेम जानते है पर प्रेम की गहराईओं में अगर उतरा जाए तो इसके स्वयं इतने आयाम है कि हर एक मार्ग जो हमें उस एक ईश्वर के और करीब ले जाता है वैसा ही होगा। आज आप का ये सर्वोत्तम पक्षकार आप को प्रेम के विषय में बताएगा।
दो शरीरों का प्रेम केवल और केवल एक नियत समयावधि के लिए हो सकता है और वो समय विस्तार शरीर के आकर्षण पे ही निर्धारित होता है। ये वही प्रेम है जिसके विषय में हमारे हिंदी चलचित्र के न जाने कितने पात्रों ने अपने-अपने तरिके से सिनेमा के परदे पर दिखाने का प्रयास किया है।
दूसरा प्रेम वो है जो मन के मिलान से होता है और इसमें शरीर का आकर्षण नहीं होता पर उसकी सीमा भी शरीर के इर्द गिर्द ही मानी गई है।
तीसरा प्रेम है निश्छल जो ईश के प्रति प्रीति जागृत करता है इसे हम सर्वोत्तम प्रेम कह सकते है। कभी यह साकार होकर कृष्ण का रूप लेता है तो कभी निराकार हो कर ब्रह्म का रूप लेता है। इस प्रेम में हमारे सभी प्रेमो का सर छिपा है।
अगर हम किसी व्यक्ति से भी ऐसा ही प्रेम करे तो वो ईश्वर को ही पाने का एक माध्यम बनता है। इसमें न लेन देन का भाव होता है न ही पाने की उत्कण्ठा ये नियत कालखण्ड समय पटल पर अपनी छाप छोड़ जाता है। जो फलीभूत होता है कभी तुलसी तो कही बिहारी के रूप में।
क्रमशः ...
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