स्वयं को स्वीकारें/ओशो - Kashi Patrika

स्वयं को स्वीकारें/ओशो


एक गुलाब का फूल, गुलाब का फूल है, उसके कुछ और होने का प्रश्न ही नहीं उठता। और एक कमल का फूल, कमल का फूल है। ना तो कभी गुलाब कमल होने की चेष्ठा करता है, और ना ही कमल कभी गुलाब होने की। इसलिए वे विक्षिप्त नहीं हैं। उन्हें किसी मनोवैज्ञानिक की आवश्यकता नहीं, उन्हें किसी मनोविश्लेषण की आवश्यकता नहीं। गुलाब सहज रूप से स्वस्थ होता है क्योंकि वह सहज ही अपनी वास्तविकता में जीता है।

और सारे आस्तित्व के साथ ऐसा ही है केवल मनुष्य को छोड़ कर। एक मनुष्य ही है, जो आदर्शों और नीतियों में जीता है। 'तुम्हे ऐसा होना चाहिए, तुम्हे वैसा होना चाहिए'? तब तुम अपने होने के ढंग में विभाजित हो जाते हो। नीतियां और आचरण तुम्हारे दुश्मन हैं।

तुम स्वयं होने के अलावा कुछ और नहीं हो सकते। इसे अपने ह्रदय में गहरे उतर जाने दो: तुम वही हो सकते हो जो तुम हो, अन्यथा कभी भी नहीं। एक बार यह सत्य कि 'मैं केवल स्वयं ही हो सकता हूं' तुम्हारे भीतर उतर जाए तो सभी आदर्श विदा हो जातें हैं। वे खुद-ब-खुद छूट जाते हैं। और जब कोई आदर्श नहीं होते, सत्य से सामना हो जाता है। तब तुम्हारी दृष्टि अभी और यहीं में स्थिर हो जाती हैं,  तब तुम उसके समक्ष उपस्थित हो जाते हो जो है। भेद, विभाजन मिट गया। तुम एक हुए।
-ओशो

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