श्री गंगालहरी - Kashi Patrika

श्री गंगालहरी


श्री गंगालहरी 


नरां  मूढांस्तक्तज्जनपदसमासक्तमनसो
हसन्तः सोल्लासं  विकचकुसुम व्रातमिषतः ।
पुनानाः सौरभ्यैः सततमलिनो नित्यमलिलनां 
सखायो नः सन्तु त्रि दशतटिनीतीरतरवः ॥ ४३॥


यजन्त्येके देवां कठिनतरसेवांस्तदपरे
वितान व्यासक्ता यमनियमरक्ताः कतिपये । 
अहं तु  त्वन्नामस्मरणकृतकामस्त्रिपथगे 
जगज्जालं जाने जननि तृणजालेन सदृशं ॥ ४४॥


आज हम श्री गंगालहरी के दो और श्लोकों को प्रकाशित कर रहे हैं। 

No comments:

Post a Comment