अब मुंबई ही क्या देश में न वैसे अखाड़े रहे, न अखाड़ों की माटी में पसीना-बहाने वाले वैसे पहलवान और न इन पहलवानों के वैसे गुणी कद्रदान।
विमल मिश्र |
बनारस उनकी जन्मभूमि है और महाराष्ट्र कर्मभूमि। बनारसी भोजपुरी की तरह खांटी कोल्हापुरी अंदाज में मराठी बोलने वाले दीनानाथ सिंह पर पूरा कोल्हापुर गर्व करता है और खुद दीनानाथ सिंह मुंबई की अपनी विरासत पर। किसे अंदाज होगा देश की कुश्ती राजधानी कोल्हापुर में पहलवानी की गंगावेस तालीम का यह उस्ताद जिस मुकाम पर पहुंचा हैं उसके लिए उन्हें न जाने कितने पापड़ बेलने पड़े होंगे! उनकी यह लगन जिंदगी का मिशन बनकर आज तक जारी है। मुंबई आए हुए दीनानाथ बताते हैं, ‘अपने हर मल्ल में मैं अपना ही रूप देखना चाहता हूं।’
दीनानाथ अपने जमाने के अखाड़ों और कुश्ती से आज के वक्त की तुलना करें तो शायद निराशा ही हाथ लगे। अब मुंबई ही क्या देशभर में न वैसे अखाड़े हैं, न अखाड़ों की माटी में पसीना-बहाने वाले वैसे पहलवान और न उनके वैसे गुणी कद्रदान। खुले स्थानों पर बनने वाले अखाड़े शहर में जगह की कमी के साथ सिमटने लगे हैं। उत्तर भारतीय युवक व्यायाम करने और शरीर बनाने अब अखाड़ों की मिट्टी में दम लगाने के बजाय पसीना सुखाने एयरकंडीशंड जिम जाने लगे हैं। दूसरे खेलों की तरह कुश्ती में भी पैसा हावी होने लगा है। आए दिन होने वाले दंगल अब खास अवसरों की शोभा बन गए हैं। ... जमाना बदल गया है।
एक वक्त था जब उत्तर प्रदेश से पहलवानों का मुंबई आना जरूरत का तकाजा था। सेठियों को सुरक्षा और रोब-दाब दिखाने के लिए लठैतों की जरूरत थी और इन पहलवानों को रोजी-रोटी की। केवल मल्ल विद्या से रोजी-रोटी कमाना उस जमाने में संभव नहीं था। शहर के कुछ तबेला मालिक ही खुद या चंदों से इन पहलवानों को आश्रय देकर उनके लिए दूध और गिजा का प्रबंध करते थे। कुश्तियां जीतने पर जो छोटे-मोटे ईनाम-इकराम मिलते थे वे बस, पानदान के खर्च के लिए पर्याप्त हो सकते थे। लिहाजा, परिवार के लालन-पालन के लिए नौकरी और दुकान जैसे कामों में जुटना पहलवान की मजबूरी थी।
इलाहाबाद के राजाराम त्रिवेदी उत्तर प्रदेश से मुंबई आए शायद पहले ऐसे पहलवान थे। मुंबई वालों ने चांदी की गदा भेंटकर 1910 में उन्हें ‘उस्ताद’ का खिताब अता किया था। राजाराम के मुंबादेवी और गायवाड़ी के अखाड़ों ने मशहूर पठ्ठों के साथ सातारा के किसनवीर जैसे क्रांतिकारी भी तैयार किए। 1920-1950 के दशकों को पहलवानी के लिहाज से मुंबई के उत्तर भारतीय अखाड़ों का स्वर्णकाल कहा जा सकता है जब ईनामी दंगलों का दौर शुरू हुआ। इन कुश्तियों ने कई उस्तादों और पेशवर ठेकेदारों को खुशहाल और बर्बाद किया। जाने-माने उत्तर भारतीय नेता और महाराष्ट्र के मंत्री रहे डॉ. राममनोहर त्रिपाठी ने अपनी मशहूर किताब ‘मुंबई के उत्तर भारतीय‘ में सांताक्रुज के सतपाल, परेल के बुद्धू खलीफा, जोगेश्वरी के जोखन उस्ताद, अंधेरी के पं. हृदय नारायण तिवारी, धारावी के रामचंद्र उस्ताद, कुर्ला के महादेव तिवारी व रामदुलार दादा,माटुंगा के पं. केशव शर्मा व मुरलीधर पांडेय के अखाड़़ों और पुनई उस्ताद, श्रवण कुमार पांडेय, बाबू सबल सिंह, कमलाशंकर पांडेय, उदित नारायण तिवारी, जगरदेव सिंह, जैसे पहलवानों की चर्चा की है। देवनाथ पांडेय उर्फ सुर्री पहलवान के खास उल्लेख के साथ जो मुंबादेवी दर्शन करने माटुंगा से दौड़ते हुए चले जाते थे। उत्तर प्रदेश से आए मल्लों की इस परंपरा को नरसिंह यादव जैसे पहलवान बढ़ा रहे हैं जो दीनानाथ की ही तरह बनारस की माटी से जन्में हैं।
बनारस के लोग अपने इस लाल की ‘अजेय’ माने जाने वाले पंजाब के मेहरदीन से 1973 में हुई कुश्ती को अभी भी याद करते हैं जिसमें मेहरदीन को महज 45 मिनट में धूल सुंघाकर दीनानाथ ‘भारत मल्ल केसरी’ बने। एक बातचीत में दीनानाथ उस विजय को याद करते हुए विभोर हो उठे, ‘कुश्ती में खुद पं. कमलापति त्रिपाठी मौजूद थे जो उस वक्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे।’ सुपारीबाग, परेल में, मुंबई का वह मुकाबला भी उनकी यादों में जस का तस बना है जब मशहूर मल्ल चंबा पुतनाल से उनकी कुश्ती में दाद देने वालों में खुद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री वसंतराव नाईक शामिल हुए। महाराष्ट्र केसरी, हिंद केसरी ... इसके बाद तो उन्होंने कामयाबियों का तांता ही लगा दिया।
दीनानाथ सिंह |
पिता और चाचा दोनों के पहलवान होने के कारण पहलवानी दीनानाथ के खून में है। बालपन में ही पिता की छाया से वंचित हुए दीनानाथजी को श्रेष्ठ पहलवान बनाने के लिए चाचा ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था। मुंबई में उनकी शुरूआत माटुंगा तालीम के मशहूर पहलवान देवनारायण सिंह द्वारा पहली बार लंगोट पहनाए जाने से हुई। आज भी वे लोअर परेल की बिटिया मिल के अखाड़े में लाल बहादुर उस्ताद से मिली तालीम और माटुंगा क्षेत्र के सुद्धन सिंह व मिठाईलाल सिंह से मिले प्यार और सहयोग का उपकार मानते हैं। कोल्हापुर में उनके अखाड़ों से ‘गंगावेस’ तालीम में हर वर्ष 100 से 125 मल्ल निकल रहे हैं। उत्तर भारतीय भी, मराठी भी।
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1920-1950 के दशकों को पहलवानी के लिहाज से मुंबई के उत्तर भारतीय अखाड़ों का स्वर्णकाल कहा जा सकता है जब ईनामी दंगलों का दौर शुरू हुआ। उत्तर प्रदेश से आए मल्लों की इस परंपरा को नरसिंह यादव जैसे पहलवान बढ़ा रहे हैं जो दीनानाथ सिंह की ही तरह बनारस की माटी से जन्में हैं।
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