श्री गंगालहरी - Kashi Patrika

श्री गंगालहरी


श्री गंगालहरी 


विधिक्तां निःशङ्कं निरवधि समाधिं विधिरहो 
सुखं शेषे शेतां  हरिरविरतं  नृत्यतु हरः । 
कृतं  प्रायश्चिक्तेरलमथ  तपोदानयजनैः   
सावित्रि कामानां यिद जगित जागर्ति जननी ॥ २३॥



अनाथः  स्नेहार्द्रं    विगलितगतिः पुन्यगतिदां  
 पतं विश्वोद्धर्त्रीं गदविगलितः  सिद्धभिषजं   
सुधासिन्धुं तृष्णाकुलितहृदयो मातरमयं 
शिशुः सम्प्राप्तस्त्वामहमिह विद्ध्याः  समुचितं ॥ २४॥



आज हम श्री गंगालहरी के दो और श्लोकों को प्रकाशित कर रहें हैं। 

- संपादक की कलम से 

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