संसार में धर्म से भी बड़ी महिमा दया की है। पाप से बड़ी महिमा पुण्य की, भय से
बड़ी वीर और अभिमान से बड़ी महिमा दयावान की है। ईश्वर पर विश्वास ही जीवन की सुगम्यता है। जिसके साथ ईश्वर है, वह बड़ी से बड़ी विकट समस्या से भी उबर जाता है, और जहां ईश्वर नहीं वहां बड़े से बड़ा वीर परास्त हो जाता है।
महाभारत के युद्ध में अर्जुन और कर्ण के बीच घमासान चल रहा था। अर्जुन का तीर लगने पर कर्ण का रथ 25-30 हाथ पीछे खिसक जाता और कर्ण के तीर से अर्जुन का रथ सिर्फ 2-3 हाथ। लेकिन श्रीकृष्ण थे कि कर्ण के वार की बड़ाई किए जाते, अर्जुन की तारीफ में कुछ न कहते!!
इससे अर्जुन व्यथित हो पूछे, 'हे पार्थ! आप मेरे शक्तिशाली प्रहारों की बजाय उसके कमजोर प्रहारों की तारीफ कर रहे हैं, ऐसा क्या कौशल है उसमें?'
श्रीकृष्ण मुस्कुराए और बोले, 'तुम्हारे रथ की रक्षा के लिए ध्वज पर हनुमानजी, पहियों पर शेषनाग और सारथी रूप में खुद नारायण हैं। उसके बावजूद उसके प्रहार से अगर यह रथ एक हाथ भी खिसकता है, तो उसके पराक्रम की तारीफ तो बनती है।'
कहते हैं, 'युद्ध समाप्त होने के बाद श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पहले उतरने को कहा और बाद में स्वयं उतरे। जैसे ही श्रीकृष्ण रथ से उतरे, रथ स्वतः ही भस्म हो गया। वह तो कर्ण के प्रहार से कबका भस्म हो चुका था, पर नारायण विराजे थे, इसलिए चलता रहा। यह देख अर्जुन का सारा घमंड चूर-चूर हो गया।'
इसलिए, "जीवन में कभी सफलता मिले तो घमंड मत करना। कर्म तुम्हारे हैं, पर आशीष ईश्वर का है। किसी को परिस्थितिवश कमजोर मत आंकना, हो सकता है उसके बुरे समय में भी वह जो कर रहा हो, वो आपकी क्षमता के भी बाहर हो। इसीलिए, जितना बन पड़े, दूसरों की सहायता करें।"
ऊं तत्सत...
बड़ी वीर और अभिमान से बड़ी महिमा दयावान की है। ईश्वर पर विश्वास ही जीवन की सुगम्यता है। जिसके साथ ईश्वर है, वह बड़ी से बड़ी विकट समस्या से भी उबर जाता है, और जहां ईश्वर नहीं वहां बड़े से बड़ा वीर परास्त हो जाता है।
महाभारत के युद्ध में अर्जुन और कर्ण के बीच घमासान चल रहा था। अर्जुन का तीर लगने पर कर्ण का रथ 25-30 हाथ पीछे खिसक जाता और कर्ण के तीर से अर्जुन का रथ सिर्फ 2-3 हाथ। लेकिन श्रीकृष्ण थे कि कर्ण के वार की बड़ाई किए जाते, अर्जुन की तारीफ में कुछ न कहते!!
इससे अर्जुन व्यथित हो पूछे, 'हे पार्थ! आप मेरे शक्तिशाली प्रहारों की बजाय उसके कमजोर प्रहारों की तारीफ कर रहे हैं, ऐसा क्या कौशल है उसमें?'
श्रीकृष्ण मुस्कुराए और बोले, 'तुम्हारे रथ की रक्षा के लिए ध्वज पर हनुमानजी, पहियों पर शेषनाग और सारथी रूप में खुद नारायण हैं। उसके बावजूद उसके प्रहार से अगर यह रथ एक हाथ भी खिसकता है, तो उसके पराक्रम की तारीफ तो बनती है।'
कहते हैं, 'युद्ध समाप्त होने के बाद श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पहले उतरने को कहा और बाद में स्वयं उतरे। जैसे ही श्रीकृष्ण रथ से उतरे, रथ स्वतः ही भस्म हो गया। वह तो कर्ण के प्रहार से कबका भस्म हो चुका था, पर नारायण विराजे थे, इसलिए चलता रहा। यह देख अर्जुन का सारा घमंड चूर-चूर हो गया।'
इसलिए, "जीवन में कभी सफलता मिले तो घमंड मत करना। कर्म तुम्हारे हैं, पर आशीष ईश्वर का है। किसी को परिस्थितिवश कमजोर मत आंकना, हो सकता है उसके बुरे समय में भी वह जो कर रहा हो, वो आपकी क्षमता के भी बाहर हो। इसीलिए, जितना बन पड़े, दूसरों की सहायता करें।"
ऊं तत्सत...
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