सर्वोत्तम पक्षकार
आधुनिक्ता की इस अंधी दौड़ में आप को बीच मझदार की फ़ांस से बाहर निकालने को आज से हम एक अटूट रिश्ता बनाने जा रहे है जिसका नाम हमनें 'सर्वोत्तम पक्षकार' रखा है।
कहते है नाम में क्या रखा है पर नाम ही आखिर वो पहचान होती है जो आपको हमसे और हमको आपसे जोड़ती है। इसे हम इस तरह भी मान सकते है कि ककहरे का पहला अक्षर नाम ही होता है जो इस वृहत ब्रह्माण्ड में हमारा पहला पक्षकार बनता हैं। यही पक्षकार मध्यम गति से निरंतर बढ़ता हुआ हमारे जीवन के वृहत्तर परिदृश्य में एक अलंकार का भाव बन जाता है जो अक्सर खुद को सुकून देता हुआ दुसरो को सरोकारों की पतली सी चादर में बुन देता है कभी कबीर की तरह तो कभी तुलसी तुलसी की तरह, कभी मीरा के रागो में खो जाता है तो कभी कृष्ण की वाणी में गीता सर प्रस्तुत करता है।
तो जब हमने सबसे अच्छा सरोकार जोड़ने का वादा किया तो नाम आया सर्वोत्तम पक्षकार। ये सर्वोत्तम पक्षकार आप का आपके लिए और आपके द्वारा ही लिखा जायेगा। तो आईये चलते है एक ऐसे सफर पर जो जितना हमारा है उतना ही आप सबका भी है। इसका पहला अंशदान आज हम खुद कर रहे है जिसमे हमने चुना है रहीम का एक दोहा
“चाह गई चिंता मिटीमनुआ बेपरवाह. जिनको कुछ नहीं चाहिये, वे साहन के साह।”
अर्थ :- जिन लोगों को कुछ नहीं चाहिये वों लोग राजाओं के राजा हैं, क्योकी उन्हें ना तो किसी चीज की चाह हैं, ना ही चिन्ता और मन तो पूरा बेपरवाह हैं। इस तरह का है अपना कुछ भारत जिसे देश कहना छोटा लगता है कभी- कभी जो एक वृहत्तम विचार है जिसमे सारा संसार समाहित है। इसके पहले अंशदान का ये दोहा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योकि जबतक स्वार्थ की कालिख को बेपरवाही से न साफ किया जाए उसमे कालिख बची ही रह जाती है।
- संपादक की कलम से
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