भीमराव अंबेडकर को नौकरी का वादा देकर लेनी पड़ी थी मदद, बड़ौदा महाराज की मदद से की के यहां झेलनी पड़ी थी भयंकर छुआछूत...
विद्यार्थी जीवन में भीम को संस्कृत सीखने की बड़ी इच्छा थी, लेकिन संस्कृत अध्यापक ने उसे द्वितीय भाषा के रूप में संस्कृत पढ़ाने से इनकार कर दिया था। तब न चाहते हुए भी भीम को पर्शियन (फारसी) सीखने को कहा गया था।
भीमराव अंबेडकर को नौकरी का वादा देकर लेनी पड़ी थी मदद, बड़ौदा महाराज के यहां झेलनी पड़ी थी भयंकर छुआछूतबाबासाहब बीआर आंबेडकर को 1990 में मरणोपरांत भारत रत्न दिया गया था।
संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर न सिर्फ दलित चिंतक और समाज सुधारक थे बल्कि पूरी दुनिया उन्हें एक अध्यापक, कुशल कानूनविद, दार्शनिक, इतिहासकार, मनोविज्ञानी और अर्थशास्त्री के रूप में भी जानती है। वो आजाद देश के पहले कानून मंत्री भी थे। भारतीय समाज में डॉ. अंबेडकर अपने योगदान के लिए लोगों के बीच बाबासाहेब के नाम से मशहूर थे। उन्होंने सामाजिक भेदभाव और जातिवाद को जड़ से मिटाने के लिए जीवनभर संघर्ष किया। अंत में उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया। डॉ. अंबेडकर बचपन से ही सामाजिक भेदभाव और छुआछूत के शिकार रहे। अक्सर साथी छात्र उनके साथ भेदभाव करते थे। उन्हें क्लास में भी अलग बैठाया जाता था। उनका जन्म 14 अप्रैल, 1891 को तत्कालीन ब्रिटिश भारत के केंद्रीय प्रांत (मध्य प्रदेश) के इंदौर के पास महू शहर की छावनी में एक महार परिवार में हुआ था।
डॉ. अंबेडकर का परिवार मूलत: मराठी था और महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले का निवासी था। अंबेडकर पढ़ने में बहुत तेज थे। इसलिए कई शिक्षक उच्च जाति का होते हुए भी अंबेडकर से काफी स्नेह करते थे। सी एस भंडारी ने अपनी किताब “प्रखार राष्ट्र भक्त डॉ. भीमराव अंबेडकर” में लिखा है, विद्यार्थी जीवन में भीम को संस्कृत सीखने की बड़ी इच्छा थी लेकिन संस्कृत अध्यापक ने उसे द्वितीय भाषा के रूप में संस्कृत पढ़ाने से इनकार कर दिया था। तब न चाहते हुए भी भीम को पर्शियन (फारसी) सीखने को कहा गया था लेकिन भीम ने अपना संकल्प नहीं छोड़ा। उन्होंने पर्शियन के साथ-साथ एक पंडित से संस्कृत भी सीखी।” उन्होंने अंबेडकर का कथन उद्धृत करते हुए लिखा है, “संस्कृत के सामने पर्शियन कुछ भी नहीं। उससे कोई लाभ नहीं। संस्कृत पुराणों का ज्ञान-भंडार है। व्याकरण, दर्शनशास्त्र, अर्थशास्त्र का भंडार है। तर्क, नाटक, मीमांसा आदि का आधार है संस्कृत।”
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पहली पत्नी रमाबाई के साथ |
भंडारी ने लिखा है कि भीमराव अंबेडकर ने भारत में डिग्री ली थी अंग्रेजी और पर्शियन भाषा में लेकिन बड़ौदा महाराज की आर्थिक सहायता से वो 1913 में अमेरिका के कोलंबिया यूनिवर्सिटी से राज्यशास्त्र, नीतिशास्त्र, मानवशास्त्र और अर्थशास्त्र में एमए करने के लिए चले गए थे। उन्होंने दो साल के अंदर सभी विषयों में एमए कर लिया था और देश लौट आए थे। उनकी प्रतिभा का वहां खूब सम्मान हुआ था। अमेरिका जाने से पहले अंबेडकर ने बड़ौदा महाराज को लिखकर दिया था कि वो जब पढ़कर लौटेंगे तो उनके यहां काम करेंगे। भंडारी के मुताबिक, अंबेडकर अपने वचन के मुताबिक लौटकर बड़ौदा महाराज के यहां काम करने पहुंच गए थे। उस वक्त महाराज का विचार था कि कुछ दिनों तक अलग-अलग विभागों में काम कराने के बाद उन्हें अर्थ सचिव नियुक्त करें, इसलिए सबसे पहले उन्हें सेना विभाग का सचिव नियुक्त किया गया था।
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दुसरी पत्नी सविता अंबेडकर |
भंडारी लिखते हैं कि बड़ौदा महाराज की आज्ञा के बावजूद अंबेडकर को काफी परेशानी झेलनी पड़ी थी। उन्हें रेलवे स्टेशन लेने कोई कर्मचारी नहीं पहुंचा था। उन्हें बड़ौदा में रहने की जगह तक नहीं मिली थी। अंत में पारसी नाम बदलकर अंबेडकर एक होटल में ठहरे। कचहरी में कर्मचारी हस्ताक्षर कराने के लिए अंबेडकर के पास कागज ऊपर से गिराते थे। यहां तक कि पानी भी ऊपर से पीने को दिया जाता था। नीची जाति का होने की खबर लगी तो होटल से भी बाहर कर दिए गए थे।
भंडारी लिखते हैं, “जब कहीं भी हिन्दू-मुस्लिम-पारसी द्वारा आश्रय नहीं दिया गया तो दुखी अंबेडकर एक दिन गांव के बाहर एक पेड़ के नीचे बैकर बहुत रोए थे और उन्होंने अपने भाषण में कहा था कि जन्म के कुल के सामने विद्वता का मूल्य नहीं रहा।” तब महाराज की नौकरी से इस्तीफा देकर अंबेडकर फिर बंबई लौट गए थे।
(चित्र :विकिपीडिया)
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